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क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, 'कोठिया' )
। द्वितीय-लेख ] उक्त शीर्षकके साथ मैंने 'अनेकान्त' वर्ष ६ किरण १२ पहले उसका उत्तर न देकर मेरे दूसरे लेखका उत्तर यह में एक लेख लिखा था और उसके द्वारा प्रो. हीरालालजी कारण बतलाते हुए लिखा गया है कि "कि दूसरे लेख एम. ए. के रखकरण्श्रावकाचारको स्वामी समन्तभद्रकृत का विषय हमारी चिन्तनधारामें अधिक निकटवर्ती है।" न माननेके मतपर उहापोह के साथ विचार किया था तथा किन्तु आपने यह नही बतलाया कि प्रापकी वह चिन्तनयह सिद्ध किया था कि रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी धारा कौनसी है? और उसमें इस लेखसं क्या निकटवर्तिस्व समन्तभद्र (भाप्तमीमांसाकार) की ही रचना है, उसमें न है ? वास्तवमे तो मेरे पहिले लेखका विषय ही उनकी तो दोष के स्वरूप-विषयमे भिन्न अभिप्राय है और न उस चिन्तनधारामें अधिक मिक्टवर्ती जान पड़ता है जहाँ के कर्ता रत्नमालाकार शिवकोटिके गुरु ( समन्तभद्र ) सिद्ध नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्रको दो पृथक होते हैं, क्यों कि रत्नमाला और उसके कर्ताका समय सोम. व्यक्ति स्पष्ट करके बतला दिया गया है और जिन्हें कि प्रो. देव (११ वीं शताब्दि) के उत्तरवर्ती है जब कि रत्नकरण्ड सा० ने एक व्यक्ति मानकर विलुप्त अध्यायकी इमारत खड़ी और उसके कर्ताका अस्तित्व सिद्धसेन (वि. की ७ वीं की थी। बहुत सोचने पर भी मैं यह रहस्य नही समझ शताब्दी) और पूज्यपाद (४५० ई.) के पूर्ववर्ती प्रसिद्ध मका। किन्तु जब मैंने अपनी दृष्टि दौडाई और ५० फूलहोता है। यह लेख कितने ही विचारशील विद्वानोको पसन्द चन्दजी सिद्धान्तशास्त्री तथा उनके बीच हो रही चर्चाकी भाया । विद्वद्वर्य पं० सुमेरुचन्दजी 'दिवाकर' न्यायतीर्थ, ओर ध्यान दिया तब मुझे स्पष्ट मालूम होगया कि प्रो. शास्त्री, बी० ए० एल.एल. बी. सिवनीने तो उक्त लेखको सा० की रीति-नीति ही कुछ ऐसी बन गई है कि वे मुख्य पसन्द करते हुए ता. १३-१-४४ के पत्रमं स्वत ही मुझे विषयको टालनेके लिये कुछ अप्रयोजक प्रश्न या प्रसंग लिखा था-"अनेकान्तमे रस्नकरण्डके बारेमें आपके गवे- अथवा गौण बात प्रस्तुत कर देते हैं और स्पष्ट तथ्यको षणापूर्ण लेखको पढ़ कर बडा हर्ष हश्रा। ऐमी महत्वपूर्ण झमेले में डाल देते हैं। अन्यथा, जब उनकी घोषणा है कि रचनाके लिये बधाई है।"
उनकी शकाएँ केवल गम्भीर अध्ययन के लिये हैं तो क्या परन्तु प्रो० सा० को वह लेख पसन्द नहीं पाया और वजह है कि जिनका उत्तर प्रमाण युक्त एवं ठीक है उन्हें आपने अनेकान्त वर्ष - किरण ३-४ ५-६ और ७-८ में स्वीकार करके प्रागे नहीं बढ़ा जाता ? मैंने अपनी इस 'रस्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व शीर्षकमे मालूमातको उस समय और पुष्ट एवं सत्य पाया जब प्रत्युत्तर देनेका प्रयत्न किया है। यद्यपि मैं उक्त लेखके कलक कामें उनके साथ मौखिक चर्चा हुई और पीछे उनका पहिले भी उनके विलुप्त अध्याय सम्बन्धी निबन्धके एक आश्चर्यजनक वक्तव्य निकला । मालूम नही तस्वचर्चा मुख्य अंशका, जोकि हम निबन्धकी प्रधान प्राधार-शिक्षा है, सम्बन्धी वीतरागकथामें भी इस प्रकारकी अन्यथा प्रवृत्ति उत्तरस्वरूप क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्त. को क्यों स्थान दिया जाता है ? और क्यो नही सस्यको भद्र एक हैं ? इस नामका एक विस्तृत लेख प्रकट कर चुका उदारताके साथ अपनाया जाता ? अस्तु । श्राज मैं उनके हूं और इस लिये उसीका प्रो. सा. के द्वारा प्रथमत: इस प्रत्युत्तर लेखपर भी अपना विचार प्रकट करता है। प्रत्युत्तर लिखा जाना क्रमप्राप्त एवं न्याययुक्त था। परन्तु सर्व प्रथम प्रो० सा० ने मेरे लेखके उस स्पष्ट तथ्यपर,