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किरण ६-१०]
वीर-सन्देश
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भोगते हुए भी बेचारे मृगतृष्णाके जाल में फंसे हुए मृगकी बहा करती है। यदि प्रात्मा अपनी शक्तियोको पहिचान ले मांति, अतृप्त और प्यासेक प्यासे ही रह जाते है, इनकीन और वास्तविकताको जान ले कि मैं इन्द्रियोंके लिए नहीं तो इच्छाएँ ही तृप्त हो पाती है और न उस सुखको प्राप्ति बल्कि इन्द्रियों मेरे लिए हैं, तो अधिकांश अशान्तिका ही, कि जिसके लिए प्राणी भटकता फिर रहा है । बाल्क नाश इस तस्व-ज्ञानके होते ही हो जाय। होता यह है कि एक चाहकी पूर्ति होते होते दूसरी चीजो इसलिए मित्रो ! कमसे कम जो बात जैसी है उसे की चाह एव अतृप्त वासनाएँ पुनः जागृत होकर उसकी वैसा तो जानो, फिर चाहे उसपर अमल सुविधानुसार रही सही शान्तिका भी नष्ट कर डालती हैं।
करना । मुझे विश्वास है कि यदि एक बार भी तुमने ___ यह सब मिथ्यादर्शन (उल्टी समझ) का ही दुष्परि- अपने पापको और सुख शान्तिकी वास्तविकताको जान णाम है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंको बिना किसी संकोचक
लिया व अनुभव कर लिया तो सुखी बननेमे फिर कोई भोगना ही पड़ता है। सजनां ! इसलिए यदि सचमुच ही खास रुकावट नही पा सकती। यह भ्रम है कि इन्द्रियोंक सुख और शांतिको प्राप्त करने की दिली अभिलाषा है तो भोग राज्य-बचमी और ये नाना भांतिकी विषय सामग्रियां सर्वप्रथम यह तो सोचो कि सुख और शांति वास्तवम हैं मनुष्यको सुखी बना देंगी। मै स्वय इन चीजोंको टुकराकर क्या पदार्थ, वे कहाँ रहते हैं और कैसे प्राप्त हो सकते हैं? ही माज इस परमात्मदशाको प्राप्त हो सका हूँ। लगातार कंवल सुख सुन चिल्लाने और अंधाधुन्द उसको प्राप्त करने १२ वर्ष पर्यन्त इन्द्रियों और मनपर पूर्ण विजय प्राप्त के लिए कहींके कहीं जुट जाने मात्रसे वह कभी भी प्राप्त करने काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेषादि नहीं हो सकता। सुनो, और निश्चितरूपस जान लो कि इस दुर्भावनाओं के नष्ट करने एवं कठोर तपश्वरण द्वारा कर्मसबंध में तुम्हें पहले सम्यकदृष्टि बनना होगा और अपने शत्रओंकी भस्म करनेका रदतर प्रयत्न हा पाज श्रास्मिक आपको व दृश्यमान संसारको जानना और समझना होगा। वास्तविक सुख प्राप्त करनका सुअवसर लाया है। मैंने जो अभी शायद आप यह नहीं जानते कि सुख क्या वस्तु है। श्राप लोगोंको सम्व प्राप्त करनका उपर्युक्त मार्ग बताया है. देखो, आकुलता और प्रशांतिके न होनेपर प्रात्मामे जो वह न तो कोरा आदर्श है और न पागोंकी बकवास, वह अनुपम शाति एवं प्रानंदका स्त्रोत बहता है वही सुख है, है सीधा सादा, अनुभूत और सरल उपाय, जिसपर अमल जो कि कहींस पाता जाता नहीं और न किसी वस्तुसे प्राप्त करके संसारका प्राणीमात्र सुखी बन सकता है । यह ही होता, वह तो श्रास्माका स्वभाव या गुण है, जो कि सोचना भी भ्रम है कि यह मार्ग किसी खास जाति, व्यक्ति आत्मामें ही इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त करने एवं अथवा वर्गके लिए ही सेवन करने की वस्तु है. क्योंकि क्रोधादि कषायों व रागद्वेषादि भावों तथा मोहादि विकारों दुनियाके सम्पूर्ण प्राणि गोमे जीवन-तस्व एकसा ही है, जो के जीतनेपर प्रकट होता है । जिस प्रकार लोहेकी जंगको कि स्वभावत. सुख एव शान्तिको प्राप्त करने के लिए जानासानकर रेतीसे रगड़नेपर उसमे छिपी हुई चमक व्यक्त यित है और उसे प्राप्त करने का अधिकारी भी। एक जाति हो जाती है उसी प्रकार वासनाओं और दुर्भावनाओंके दूर दूसरी जातिको सताकर, एक व्यक्ति दूसरेका गला घोटकर, होजानेपर एवं कर्म परमाणुओंरूपी जंगके छूट जानेपर कोई राष्ट्र अपने भिन्न राष्ट्रोंका खून चूसकर सुखी बनने म.सासे सुख व्यक्त होता है । इसके लिए दुनियामें का यदि प्रयत्न करता है तो समझो कि अभी दुनियामें दूसरोंपर पाप और अत्याचार करनेकी जरूरत नहीं, बल्कि मूर्खताका साम्राज्स कम नहीं हुआ, क्योकि किसी को सताने भारमशान और इन्द्रिय विजयकी भावश्यकता है। ये और खून चूसनेकी भावना मात्र ही जब प्रास्मिक शांतिको इन्द्रियों और मन मारमाको अपना दास बनाकर इच्छा- भंग कर डालती है तब उसके प्रयान, जो कि सुनने मे ही नुसार नचाग करते हैं । यह सब भारमाके भ्रमपूर्ण भयंकर मालूम होते हैं, हमें कैसे सुखी बना सकते हैं ? विश्वासका दुष्परिणाम है। वास्तवमें प्रास्माको स्वयंकी इसके साथ ही इन दुष्प्रयत्नोंसे दूसरोंकी सुख और शांति शक्ति और स्वभावका परिचय न होनेसे यह उल्टी गंगा का भंग होना तो सुनिश्चित ही है।