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जैनधर्मकी चार विशेषताएँ ( लेग्बक-पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचाय )
जैनधर्म अनेक विशेषताओं का भाण्डार है। उसमे मानवको दशम गुणस्थानके बाद ही प्राप्त हो सकती है। संसारके प्रत्येक प्राणीका सुख-सन्देश निहित है। हम स्पष्ट उसके पहले उपचारसे अहिंसा मानी जाती है । यथार्थ शब्दोंमें कह सकते हैं कि जैनधर्मका एक एक सिद्धान्त दृष्टि से देखा जाये तो जहाँ जीव-विधातके परिणाम होना जन-कल्याणकी पवित्र भावनास योतप्रोत है। यदि प्राज हिंसा है वहाँ जीवोंकी रक्षा करनेके भाव होना भी हिंमा संसार जैनधर्मके वास्तविक रहस्यको समझ जावे तो उस है। अहिमाका वास्तविक रूप इन दोनों भावोंसे भागेकी की समस्त प्रशान्ति और बेचैनी एक क्षण में दूर हो जावे। वस्तु है। यदि घाजका मानव अपने आप को कलिकाल के दूषित अहिंसा और वीतरागता समानार्थक शब्द हैं। 'अहिंसा प्रभाव प्रभावित न होने दे, अपने अभिप्रायको शुद्ध रक्खे परमो धर्मः' कहिये या 'वीतरागता परमो धर्मः' कहिये तथा जैनधर्मके उपदेष्टा उसकी नयभङ्गीका रचनात्मक उप. दोनोंका एक ही अर्थ होता है। अहिंसा या वीतरागता ही योग करने लगें तो जैनधर्म संसारका एकमात्र सार्वधर्म प्रामाका उत्कृष्ट धर्म-स्वभाव है। यद्यपि वर्तमान कर्म माज ही हो जावे । उल्लिखित कारणों का प्रभाव ही उसके की उपाधिसे आत्मा अपने अहिंमा धर्ममे च्युत होकर विश्वधर्म होने में बाधक है।
हिंसा या रागादि रूप परिणमन करने लगता है परन्तु वह ___ संक्षेपमें जैनधर्मकी चार विशेषताएं हैं-हिसा, औपाधिक परिणमन श्रात्माका स्वकीय भाव नहीं कहा अनेकान्त, स्वतन्त्रता और अपरिग्रहवाद । ये चार विशेष- जा सकता। अग्निका संसर्ग पाकर पानी उष्ण हो जाता है ताएँ वे सुदृढ स्तम्म है जिनके ऊपर जैनधर्मका विशाल और लाल पीले पदार्थ के संसर्ग स्फटिक भी लाल पीला प्रासाद खड़ा हुआ है । यहाँ संक्षेपरूपमै उक्त चारों ही हो जाता है परन्तु यथार्थ दृष्टि से विचार किया जावे तो न विशेषतानीका कुछ निरूपण कर देना प्रामङ्गिक है। उष्ण होना पानीका स्वकीय भाव है और नहीं लाल पीला १ अहिंसा
होना स्फटिकका । अग्निका संसर्ग दूर होनेपर पानी शीतल हो जैनधर्ममें अहियाका बड़ी सूक्ष्म दृष्टिमे विश्लेषण जाता है और लाल पीले पदार्थका संपर्क दूर होनेपर स्फटिक किया गया है। जीवों का प्राण विधात न करना ही अहिमा धवल हो जाता है। इसमे मालूम होता है किपानीका स्वकीय नहीं है बल्कि प्राणघातका अभिप्राग ही नहीं होना मी भाव शीतलता तथा म्फटिकका स्वकीय भाव धवनना है। अहिंसा है। नये तुलं शब्दों में जैनशास्त्रका निचोर रग्बत
जिम वस्तुका जो स्वकीय भाव या धर्म होता है वह वाधक हए प्राचार्योने बतलाया है कि--श्रामाम राग द्वेष
कारण न रहनेपर निरंतर उसके पाप रहता है और जो श्रादि भावोंके उत्पन्न न होनको 'अहिंसा' और उन्हीके औपाधिक भाव होता है वह उपाधिके सद्भाव तक ही रहता उत्पन होने की हिमा' कहा यह वास्तनिक का है। हम लोग कसाईको महान् हिंसक कहते हैं क्योंकि वह बड़ी * काल: काला यनुवाश यो का श्रीनु: प्रवक्तर्वचनानयाना।
निर्दयताके साथ गाय प्रादि पशुश्रीका वध किया करता है यदि त्वच्छामकाधि नित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेपवादहेतुः ।।
आप विचारकी दृष्टि से, दिन रात होने वाले उनके मनोभावोंकी युक्रनुशासने ममन्तभद्रम्य देखेगे तो पापको मालूम होगा कि वह कुछ समय तक ही अप्रादुर्भाव: ग्वलु रागादीना भवत्यसिति । हिंसामय भाव रखता है। जो कसाई पशुवधके ममय बरा तेषामेवोत्यत्तिमिति जिनागमस्य संक्षेपः। रुद्ध मालूम होता है वही अन्य समयमे यहा शान्त मालूम होने
-रूपामिल गये अमनचन्द्राचार्यस्य लगता है। वह अपनी सी. महोदर तथा सन्तान प्रादिक