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अनेकान्त
[ वर्ष ७
और समाज सुधारकी ओर काम ही काम दिखलाई देने हिन्दी साप्ताहिक पत्र जैनगजट'को जन्म दिया है. समाज लगा-सुधारकी लहर सर्वत्र दौड़ गई।
की निद्रा भंग करनेके लिये वकालतके अवकाश-समय में जिसे एक दो बार प्रकाश-विरोधिनी काली काली कई बार स्वयं उपदेशकी दौरा किया है, जिसमें एक बार घटानोंने आ बेग और उसकी गतिको रोकना चाहा, परन्तु मुझे भी शामिल होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जो भागेकी ही बढ़ता चला गया । जिसने उन काली
जैन ग्रन्थों के प्रकाशनका प्रापने ही महान बीड़ा उठाया घटाओंपर ही अपना तेज और प्रकाश फैला दिया, अपनी
था और उसके लिये जानको हथेलीपर रखकर वह गुरुत्तर किरणोंसे उन्हें बेचैन बना दिया-वे तप्तायमान होगई,
कार्य किया है जिसका सुमधुर फल, ज्ञानके उपकरण उद्विग्न हो उठी, रो पड़ी और आखिर छिस भित हो गई।
शास्त्रांकी सुलभप्राप्तिके रूपमें, श्राज सारा जैनसमाज चव इस तरह उन लोगोंको पुनः प्रकाश मिला जो कुछ समय के
रहा है। इस कार्यको सफल बनाने में श्रापको बड़ी बर्ड। लिये प्रकाशसे वंचित हो गये थे । वे अब पहलेसे भी
कठिनाइयों-मुसीबतोका सामना करना पड़ा है. यातनाएं अधिक प्रकाशके उपासक बन गये, प्रकाशदाताके पदचिन्ही
झजनी पड़ी हैं, जानसे मार डालनेकी धमकीको भी सहना पर चलने लगे और प्रकाशन-कार्यको धडाधड भागे
पड़ा है, अार्थिक हानियों उठानी पड़ी है गुरुजनों तथा बढ़ाने लगे।
मित्रोंके अनुरोधको भी टालना पड़ा है, और जातिसं और जिसके प्रकाश-संस्कार अथवा प्रकाश-सन्ततिके
बहिष्कृत होनेका वडवा घूट भी पीना पड़ा है। परन्तु यह फलस्वरूप ही श्राज समाज में अनेक सभा-सोसाइटियों:
सब उन्होंने बही खुशीमे किया-श्रन्तरात्माकी प्रेरणाको प्रकाशनसंस्थाएँ प्रन्थमालाएँ शिक्षासस्था---पाठशालाएँ,
पाकर किया। वे अपने ध्येय एवं निश्चयपर अटल-अडोल विद्यालय, पुस्तकालय, स्वाध्यायमडल, स्कूल, कालिज,
रहे और उन्होंने कई बार अपनी सत्यनिष्ठा एवं तर्कशकिके गुरुकुल, बोर्डिङ्ग हाउस, पत्र-कार्यालय, अनाथालय और
बल पर न्यायदिवाकर पं. पानाजजीको बादमें परास्त ब्रह्मचर्याश्रम आदि प्रकाशकेन्द्र स्थापित होर अपना
किया, जो तबके समाजके सर्वप्रधान विद्वान समजाते थे। अपना कार्य करते हुए नजर आ रहे हैं, जगह जगह नई नई प्रकाशग्रन्थियाँ प्रस्फुटित होकर अपना अपना प्रकाश
इसी सम्बन्ध में उन्हें हिन्दी जैनगटकी सम्पादकीसे दिखला रही है, और प्रकाशके उपासक ऐसी कुछ उस्कण्ठा हस्तीफा देना पदा, जो कि महामभाका पत्र था, और तब व्यक्त कर रहे है जिससे मा. म होता है कि वे प्रकाशकी आपने 'ज्ञानप्रकाशक' नामका अपना एक स्वतंत्र हिन्दीपत्र मूल जननी जिनवाणीमाताको प्रब बन्दीगृहमें नही रहने देंगे जारी किया था इसी अवसरके लगभग चारने देवबन्द में और न उसे मरने ही देगे, जिससे हमारे हम 'सूर्य' ने भी जहां वकालत करते थे, जैन सिद्धान्तोंके प्रचारके लिये एक प्रकाश पाया था और वह प्रकाश-पुज बनकर जननीकी मंडल कायम किया था, जिसके द्वारा कितने ही जैनमन्ध सेवामे अम्रपर हुआ था।
छपकर प्रकाशित हुए हैं। प्रापसे ही प्रोत्तेजन पाकर आपके निःसन्देह, बाबू सूरजभानजी जनजातिकी एक बहत रिश्तेदार (समधी) बाबू ज्ञानचन्द्रजीने लाहौर में जैनबड़ी विभूति थे, उसके अनुपम न थे, भूषण थे और ग्रंथांके प्रकाशनका एक कार्यालय खोला था, जिसमें भी गौरव थे। वे स्वभावसे उदार थे, महामना थे, निष्कपट थे. कितने ही ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, और साथ ही हिन्दी में सत्यप्रेमी थे. गुणग्राही थे और सेवाभावी थे । उनका प्रायः मालिक रूपसे एक 'जैनपत्रिका' भी जारी की थी। सारा जीवन जैनसमाजकी नि:स्वार्थ-सेवा करते बीता है। मेरे देवबन्दमें मुख्तारकारी करते हुए, आपने ही मुझे उन्होंने बड़े बड़े सेवाकार्य किये हैं-मृतप्राय दिगम्बर जैन महासभाकी ओरसे मिले हुए हिन्दी जैनगजटकी सम्पादकी महासभा में जान डाली है. जैनियोंको जगानेके लिये सबसे के प्रोफ़र (offer) को स्वीकार करने के लिये बाध्य किय पहज्जे उर्दू में 'जैन-हित-उपदेशक' नामका मासिक पत्र था, और इस गरह जैनगजटको फिरसे उसकी जन्मभूमि निकाला है और उसके बाद (दिसम्बर सन् १८.५ मे) (देवबन्द) में बुलाकर उसके द्वारा अपनी कितनी ही सेवा