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किरण ११-१२]
जैन जातिका सूर्य अस्त !!
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भावनाको पूरा किया था । श्राप उसमे बराबर लेख तथा लेखोंको लेकर जब समाजने उनका पुन बहिष्कार लिखा करते थे और अपने सस्पगमों द्वारा मेरी सहायता किया, और इस तरह उनके विचारों को दबाने कुचजने का किया करते थ । उस समय 'प्रार्यमतकी लीला' नामसे जो कुस्मित मार्ग अख्तियार किया तथा उनके सारे किये कराये एक लम्बी लेखमाला प्रकाशित हुई थी उसके मूल लेखक पर पानी फेरकर कृतघ्नताका भाव प्रदर्शित किया, तब उन्हें श्राप ही थे।
उसपर बढ़ा खेद हुश्रा और उनके चित्तको भारी प्राघात ___समाजपेवाके भावोसे प्रेरित होकर ही आपने मेरे
पहुँना, जिसे वे अपनी वृद्धावस्थाके कारण सहन नहीं कर मुख्तारकारी छोडनेके साथ-एक ही दिन १२ फरवरी सन्
मके । और इस लिये कुछ समय बाद सामाजिक प्रवृत्तियों १६१४ को-खूब चलती हुई वकालतको छोडा था। और
स ऊबर अथवा उद्विग्न होकर उन्होंने विरक्ति धारण तबपे श्राप सामाजिक उत्थानके कार्योमें और भी तत्परताके
करली। उनकी यह विरक्ति उन्हीके शब्दों में बारह वर्ष तक साथ योग देने लगे थे-जगह जगह जाना भाना, सभा.
स्थिर रही। इस अर्से में, वे कहते थे, उन्होंने कुछ नही सोसाइटियोंमे भाग लेना, लेख लिखना, पत्रव्यवहार करना
लिखा, लेखनीको एकदम विश्राम दे दिया और पुत्रों के पास आदि कार्य आपके बढ़ गये थे। कुछ समयके लिये घरपर
रहकर उनके बच्चोम ही चित्तको बहलाने रहे। कन्यापाठशाला ही श्राप ले बैठे थे, जिसकी एक कन्या
आस्विर उनकी यह विरक्ति तबभंगहई जब लगातारके मेरे वर्तमान में प्रसिद्ध कार्यकर्ती लेखवती जैन है । खतौलीके
अनुरोध और प्राग्रहपर वे वीर सेवामन्दिग्में भा गये। यहां दस्मा बीमा केसमे विद्वद्वर पं. गोपाल दासजीका सहयोग
श्राते ही उनकी लेखनी फिर चल पड़ी, उनमें जवानीका. प्राप्त कर लेना और दस्सोंक पक्षमे उनकी गवाही दिला
मा जोश प्रागया--जिम वे 'बामी कदीमें फिरसे उबाल देना भी प्रापका ही काम था। पं०गोपालदासजीक बाईकाट
भाना' कहा करते थे--और उन्होंने लेख ही लेख लिख अथवा बहिष्कारको विफल करने में भी प्रापका प्रधान हाथ रहा है।
डाले । इन लेखोंपे अनेकान्तके दूसरे तथा तीसरे वर्षकी ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुरमें पहुँचकर अापने फाइल भरी हुई हैं और उनसे अनेकान्तक पाठकोंको बहुत उसकी भारी सेवाऐं की हैं, और जब यह देखा कि उसमें लाभ पहुंचा है। हम दो -ढाई वर्षके अमें उन्होंने अने. कुछ ऐसे व्यक्यिोंका प्राबल्य होगया है जो समाज के हिता- कान्तको ही लेख नहीं दिये बल्कि दुसरे जैन तथा अजैन हितपर ध्यान न रखकर अपनी ही चलाना चाहते हैं और पत्रोको भी कितने ही लेग्व दिये हैं। इसके अलावा, यहाँ उनकी सुनने को तय्यार नहीं, तब आपने उस छोड दिया रहते उन्होंने वीरमवामन्दिरकी कन्यापाठशालामें कन्याओं
और दूसरे रूपमे समाजकी सेवा करने लगे । वे अपने का शिक्षा भी दी है, मन्दिरमें लोगोंक प्राग्रहपर उन्हे दो विचारके धनी थे, धुनके पक्के थे और अपने विचारोका दो वटे रोजाना शास्त्र भी सुनाया है और प्राश्रमके विद्वानों खून करके कुछ भी करना नहीं चाहते थे।
मंचर्चा-वामि जब जुट जाते थे तो उन्हें छका देते थे। सत्योदय, जैनहितैषी और जैनजगत ग्रादि पत्रोंमे वे श्रापकी वाणमि रम था, माधुर्य था, भोज था और तेज था। बराबर लिखते रहे हैं और अपने विचारोको उनके द्वारा कुछ कौटुबिक परिस्थितियों के कारण भापको लगभग व्यक्त करते रहे हैं। उन्होंने सैकडो लेख लिग्य और 'ज्ञान ढाई वर्षके बाद वीरमवामन्दिरको छोडना पर -मापके सूर्योदय' आदि पचासों पुस्तके लिख डाली । लेखनकलामे भाई बा. चेतनदासजी वकीलको फालिज ( लकवा ) पद वे बडे सिद्धहस्त थे, जल्दी लिख लेने थं और जो कुछ गया था, उनकी तीमारदारीके लिये भापको उनके पास लिखते थे युक्ति पुरस्सर लिखते थे तथा समाजकं हितकी (देवयन्द) जाना पदा और फिर चि० मुग्ववन्तरायकी परिभावनासे प्रेरित होकर ही लिखते थे--भले ही उममें स्थितियोंके वश उसके पास देहली कंट, देहरादून तथा उनसे कुछ मूल तथा ग़लतिय हो गई हों. परन्तु इलाहाबाद रहना पड़ा । तदनन्तर चि. कुलवन्तराय उन उनका उद्देश्य बुरा नहीं था।
डालमियानगर ले गया, जहाँ उनकी बीमारीका कु' मादिपुराण-समीक्षादि जैसी कुछ पालोचनामक पुस्तकों समाचार सुन पहा, और अन्तको कलकत्तमें जाकर "