________________
किरण ११-१२
इतिहास में भगवान महावरका स्थान
उस समयके लोगोंकी भगवानके प्रति कितनी.श्रद्वा भारतके उत्तर-दक्षिणमे काम्बोज, गान्धार और बलखम और भक्ति थी, हम बातका अन्दाजा लगाने के लिये इतना लेकर सिंहलद्वीप तक और पूर्व-पश्चिममें श्रग-वंगमे लेकर कहना ही काफी होगा कि भारतके ऐतिहासिक युगमें मब मिन्धु, सुराष्ट्र तक सब ही स्थानों और जातियोंमें फैजा से पहला सम्बत जो कायम हुअा वह इन्होंके निर्वाण की हुअा था, और इसके मानने लोकी संख्या ईमाकी १६ वी शुभ स्मृतिम कायम हुआ था । यह पवन आज भी वीर• सदी अर्थात मुगल सम्राट अकबरके शासनकाल तक करोड़ मवतके नाम जैन लोगों में प्रचलित है । छ विद्वानांका में भी अधिक रही है। वास्तव में इस धर्मका उद्गव क्षत्रिय मत है कि द्वापर युगमे महाराज युधिष्ठरके राज्यारोहणकी वीगेकी योगपाधना हुआ है और उन्हीके गजवशोंकी स्मृतिम भी एक सवत भारतमें जारी हुआ था, परन्तु संरक्षना में ईसाकी १६ वी सदी तक इसका उत्कर्ष होता इसका निहामिक युगमे कोई मम्बन्ध नहीं है । भगवान रहा है। भारतके ऐतिहासिक युगमे ईसा पूर्वकी छठी सदी के तपस्या कालकी बगालप्रान्तगत वह पर्यटन-भूमि जो में लेकर अर्थात भगवान महावीरकानमं ईमाकी पहिली कभी गढ अथवा लाइ नामम प्रसिद्ध थी, इन्ही के वीर मदी तक हम इस धर्मको लगातार विदह देशके लिच्छवी अथवा वर्धमान नामोंके कारण श्राज तक वीरभूम और और मल्ल जानके क्ष त्रयोंमे मगधक शिशुनाग, नन्द और वर्दवानकं नाम प्रसिद्ध है।
मौर्यराजवशोम मध्यभारतक काशी, पोशल वन्म, अवन्ति, भारतके धाम जैनधर्मका स्थान
मथुराके राज्यशासकामें, कलिंगके खारवशासम्राट खारवेल
श्रादिके राजघरानाम, मुराष्ट्र राजपूतानाके लोगोम, उत्तरम भगवानने अपने जीवनकाल में जिम धर्मकी देशना की थी वह उनके निर्वाणके बाद उनके अनुयायी अनेक
गान्धार तक्षशिला श्रादिक देशाम, दक्षिणके पारद्धय,
पल्लव, चेर, चोल आदि तामिल दशाम हम हम धर्मको ग्यागी और तपम्वी महात्माप्रोके अभावके कारण और भी
एक पादरणीय धर्मके रूपमे मर्वत्र फैला हुया देखने है। अधिक फैला। वह फैलने फैलते भारतके सब ही देशाम
मौर्यमाम्राज्य बिम्बर जानेक उपगन्न, ईमा पूर्वकी पहुच गया और मब ही जातियों के लोगोंने इसमें शिक्षा
दुपरी मदीम जो यूनामी, इण्डी मीथियन अथवा शक दीक्षा ग्रहण की। यद्यपि हम धर्म माननेवालांकी सच्या
जातिक लोग एक दुमरके बाद उनरीय देशाम पाकर श्राज केवल २० लाखके लगभग है और यह धर्म प्राकिल
भारतके पश्चिम उत्तरके पजाब, विध, मालवा वादि प्रोनों अधिकतर वैश्य जातियों के लोगोमे ही फैला हुआ दिखाई
के अधिकारी होगय थे, वे भी जैनधर्ममें काफी प्रभावित देता है परन्तु इसमे यह भ्रान्ति कदापि न होनी चाहिये, कि
हुए थे । भारत के प्रमिह यवन राजा मनेन्द्र ( Menयह धर्म मदामे लघुसंख्यक नोगाद्वारा ही भारतम अपनाया
nander), जो जैन श्रमणीक प्रति बढी श्रद्ध' रखते गया अथवा यह धर्म पदाप वैश्य नोगामे ही प्रचलित रहा
थं-'अपने अन्तिम जीवन में जनधर्मम दीक्षित होगये थे। है। नहीं-साहिन्य, शिलालेख,पुरातत्व और स्मारकोफ अग
क्षत्रप नहपान भी नधमक बई प्रेमी थे। उनके सम्बन्ध णित प्रमाणाम यह बात पूरे तौरपर सिद्ध है कि यह धर्म
में विद्वानांका विचार है कि वह जनधर्ममें दाक्षित हावर (इ) मनिम निकाय-१४ वा मुन, अद्गना निकाय भूताल नामक एक दिगम्बर जैन श्राचार्य बन गये थे
१-२२० जिन्होने पटवण्डागम शास्त्रकी रचना की थी । मथुराक १ (अ) महा. हीराचन्द अोझा-भारतीय प्राचीन लिकि
प्रसिद्ध जैन पुगधम सिद्ध है कि कनिष्क, हुविक और माला । पृ० २, ३ (श्रा) लोकमान्य तिलक-सन् १९०४ में जैनकान्फरमम वापर
. वासुदेव शक राजाओके शासनकाल में जैनधर्मकी मान्यता दिया हुआ भापण।
१Dr. B C. Law Historical Gleaning २ (अ) N. L. Dey. Ancient Indian Geo- p76
graphical Dictionary p. 164 २ वार-वर्ष २, ४० ४४६-४४५ (आ) नागेन्द्रनाथ वमु--बंगला विश्वकोप- १६२१ ३ बा. कामता माइ-दिगम्बन्ध पृ० १२०