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किरण ५-६]
बन्दिनी
दुर्भाग्य झांक रहा था । ...
निकलने तककी श्राजादी उसे नहीं है। सिर्फ वातायनके वह थरथरा उठी।
द्वारसे झाँककर बाहर को देख सकती है। देख सकती है समीप ही था कि पतनकी घृणित मूर्ति उसके सामने कि एक बूढा-प्रहरी उसके कागगृहकी निगरानी किया पाती ! पर, सौभाग्य, कि वैमा कुछ हुआ नहीं! करता है।
पूँजीपति जब तक कुछ करने का साहम-संचय करें, चन्दना सोचती-'क्या वह स्वतंत्र है? हथकडीउसमे पहले उनकी पत्नीको विदित हो गया कि पतिदेव बेड़ियां उसके हाथ-पैरोमें नही पडी, बन्द भी वह नहीं है। घया करने जा रहे हैं । और तब फिर पतिदेवके लिए यह फिर "? पर, यह चक्कर क्या काटा करता है कोठरीके बिल्कुल सम्भव न रह गया, कि वे कुछ कर सके । तब इर्द गिर्द ? -किसके इशारेपर" गायद पुरुपके भीतर नारी-सम्मानकी मात्रा, या उत्तरदायि- और उसे मानना पड़ता कि वह बचाग भी उसीका बका स्मरण ब रहता था। जहां नारी अपनेको पदानु- भांति विवश है, परतत्र हैं ! कई दिनांके संयोगने, चन्दना मारिणी मानने में गौरव अनुभव करती, वहां पुरुष परनी का मन सहानुभूतिसे भर दिया । वह उसके प्रति कराया प्रति वह व्यवहार करता जो एक प्राश्रयमे श्राप हुएके हो गई । अवसर मिलता और वह उसके सुख-दुखके बारे माथ करना मनुष्यताका धर्म कहा जाता है।
में पछ उठती। उमने जाना कि वह माधु-प्रकृति, पचरित्र चन्दनाका रूप ईर्षाकी वस्तु था । ईर्षाकी मिकदार दरिद्र श्रावक है। नारियों में अधिक होती पाई है। वे किसी रूपमीकी प्रशंसा, एक दिन वह बोली-'बाबा ! बैठ जाओ, थक गए यह अनुभव करते हुए भी, कि 'यह सुन्दर है', नहीं कर होगे। विश्वास करो, मैं भागी नहीं।' सकती ! वैसे शब्द उनके श्रोठी बाहर नहीं पाते।
बुढा हैंसा, फिर विचित्र-सी प्राकृति बनाकर कहने ईषा में डूबे हुए बणिक-पत्नीके मनमें एक विचार लगा-'नुम्हारी पोरमे तो मुझे यह चिन्ता नही है-- उठा-'चन्दना रूपवती है । रूपवनी है, इसीलिए पुरुषो बेटा! कि भाग जाओगी। पर, मैं जो चाकरी कर रहा को विद्वलता देती है, पतनका मार्ग बतलाती है। न जाने हूँ, वह छूट सकती है। और उसका हटना मेरे लिए बहन कितने पुरुषका अहित हुआ होगा इसके द्वारा ? कितनी बुरा प्रमाणित होगा।' गृहस्थिर्यो में संघर्ष पैदा हुभा होगा ? कितनी पराधीन चन्दना चुप रह गई। नारियोंको मनःस्तापने जलाया-झुलसाया होगा ? . ' विवशताका अन्तरग उसका देखा हुआ था ! पिछल
व, बैठी सोचती रही-'इसे छोड देना ठीक नहीं दिनो उसे इसीका अध्ययन करना पड़ा है। होगा। यही कैद रखकर, इसके रूपको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए ! इसके कुरूप होनेसे बहुतांका भला हो
[] सकता है। काश ! यह कुरूप हो सकी।
नित्यकी तरह उस दिन भी वणिक-पत्नी दो मविकाधा वणिक-पत्नीके मुखपर सन्तोष-सा प्रतिभासित हुआ, के माथ चन्दनाको भोजन देने और उसकी अवस्था देखने कुछ मुस्कराहट भी दीखी और श्राप ही अपनेको कहने आई थी। जगी- 'तब 'उनसे' कहूँगी-यह वही है-चन्दना । कारागारका द्वार खुला हुआ था। अब करो इससे प्रेम ! इसी चमक-दमकपर पत्नीव्रत मलिन-वेष चन्दना जमीनपर बैठी थी। मिट्टीक बर्तन बिगाइने चले थे।'
में कोदों-चावल परोसे जा रहे थे । नित्य यही खाना उम
मिलता है । मेटानीकी धारणा है-मिर्फ कोदो खाते रहने बन्दिनी चन्दना गर्दिशके दिन काट रही है। हथकडी. से रूप, कुरूप हो जाता है। कोदाका प्रभाव सौन्दर्यपर बेडियोंसे विवश ! बाहिरी दुनियासे दूर ! वही एक छोटी- बुरी तरह पडता है। कोदो सौन्दर्य नाशक भोज्य है।' मी कोठरी उसका संसार है, उसका कारागार है । बाहर जल-पात्र धोने के लिए चन्दना उठी । खिड़की तक