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अनेकान्त
विष ७
हए भी न जाने क्यो उनकी यह धारणा होगई कि यह प्रोफेसर माहब द्वारा निश्चित धवलाके इस समाधि शक मंवत् ही हो मकता है विक्रम संवत् नग। और शक कालमे कई भाग बाधाएँ हैमबत् ६३८ वा ८३८ यह हो नही मकता, क्यो कि पहला प्रथम ता, प्रशस्तिमे 'सासिय विकमरायम्हि' पाट गएकट वंशकी स्थापनासे भा पूर्व पहुँच जाता है और दूमग सष्ट रहते हुए उसका सीधा अर्थ 'विक्रमादित्यक शामन क. श्राचार्य जिनमेन तथा अमोघवर्ष प्रथमकी मृत्युके भी बहुत (कुछ भौ) अइतीमवे वर्षम' न करके उन शब्दोको तोड़ बाद जाकर पड़ता है। अतः यह शक संवत् ७३८ ही हो मराड़ कर उनका अर्थ शकका ३८ वाँ वर्ष करना श्रममकता है। अपनी इस धारणाके अनुमार ही अापने पाठका गत है, विक्रम मवतका ८३८ वा वर्ष इस घटनाके लिये मशोधन किया है और पहला लाइन के 'मामिय' शब्दका उतना ही नही किन्तु अधिक उपयुक्त तथा मंगत हो सकता 'सतमय' 'विक्कम राम्हि ' का 'विक्कमराकिए', है जितना कि शक ७३८। दोनोम मात्र ३५-३६ वर्षका 'एसुसंगरमो' को 'सुसगणामे' कर दिया । वर्तमान शक अन्तर है। संवतममे ७३८ घटा कर गत वर्षोंम मन्दगति गह, ,गुरु प्राफेसर माहबने इसके विक्रम संवत् होनेमे जो बाधाय श्रादि गृहोकी द्वादश राशि सम्बन्धी परिक्रमाएँ तथा स्थूलपमे दी हैं वे निस्मार है। श्राप कहते हैं दक्षिणके प्रायः मर्व अन्दामन स्थिति निकाल कर उम समयकी कुंडली बनालं ही जैन लेखकाने शक संवतका ही उपयोग किया है, इस शोर धनराशिम शनिकी स्थिति निश्चित करके 'वर्गगावुत्ते' लिये वीरसेन स्वामीने मी शक हा मंवतका उपयोग किया पाठका 'तण वत्ते' कर दिया । गहुका मंबंध कुभगाश होगा। प्रथम तो, यह श्रावश्यक नहीं कि अन्य लेग्यकाने से करके 'कोणं' का अर्थ मगल किया हे श्रार उमे राहु यदि विक्रम संवतका उपयोग नहीं किया तो वरमेन भी न के साथ कुभराशिम बैठाग है ।।
करें । दूसरे, प्राचार्य अमित गति, देवमन, वामदेव, मेकफिर भी इस समयम दो ऐतिहाामक बाधाएँ अा ग्वही तुग, इन्द्रनान्द हत्यादि अनेक लेखकोंने अपने ग्रन्थोम हई । अमाघ पं प्रथमका राज्य-शामन नविनरूपम शक विक्रम सवतका हा उल्लेख किया है, उसी के अनुमार कालमंवत् ७३६ (सन् ८१४ ई.) में प्रारंभ हो जाता है । अतः गणनाएँ नथा घटनाप्रोकी नाथये दा है। अमाधवर्षका काई निक न करके उमक पूर्वज जगनुगदेव उत्तर भारत के जैनलेखक तो प्रायः वि म संवतका ही के राज्योल्लेबमें क्या अभिप्राय ? म बाधाका प्राफेभर उपयोग करते थे। वास्तव में प्राचीन कालमे विक्रम सबका साहिबने बड़ी ग्वबीके माथ निवारण कर दिया। श्रार कहत मर्वाधिक उपयोग जनाद्वारा ही हुआ है। बहुत सम' हे है कि रियाद' शब्द जो 'जगतुंगदेवरज्जे' के बाद कि अपने जीवन के प्रारंभिक कालम वीरसेन स्वामीका प्रयुक्त हश्रा हे उसका अर्थ यह है कि जगतुगदेव जीवित उत्तरी भारतमे अधिक सम्पर्क रहा हो उनके चित्रकूटपरमे ता थर गज्य त्याग चुके थे। यह शब्द 'मृत' या रिक्त नाचार्यजीके पास सिद्धानका अध्ययन करने के स्पष्ट का पर्यायवानी है। श्रार अमोघवर्षके राज्यकालके उल्लेग्व मा मिलने है। श्रदय प्रेमीजी तथा धवला, जयप्रारंभम हा जो विप्लव हुए वे शक मत् ७२८ तक इमी धवलाक हिन्दी सम्पादक इस चित्रकूटपुरकी स्थितिको निश्चिन कारणमे नहीं हुए कि जगतुगदेव उम समय तक जीवित नहीं कर सके। किन्तु ईमाकी ८,६ वी शताब्द में यह थे । साथ ही, बांदणरायस अभिप्राय श्रार अमोघवर्षका एक प्रसिद्ध स्थान था । बुन्देलखण्डके पूर्वीय कोनेमे प्रयाग लेते हैं, क्योंकि अमोघवर्पम लगभग १०० वर्ष पश्चात् में लगभग ५० मील पश्चिम और कालंजरमे २५ मील होने वाले उनके एक वशजकी उपाधि वदिग या बाड्डग थी। उनर-पश्चिममे चित्रकटपुर एक समृद्धशानी राजधानी थी। १ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४४
यहाँका किला बड़ा सुदृढ था । वीरसेन स्वामीके समकालीन २ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ. ४१-४२
राष्ट्रकुट जगतुंगदेव गोविन्द तृतीयने सन् ८०६ ई. के ३ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४१
१ इन्द्रनन्दि-श्रुतायतार-लोक १७६-१७८ ४ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ. ४१
२ विद्वद् रत्नमाना-प्रथम भाग, पृ० १० (फुटनोट)