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गजपन्थ क्षेत्रका अति प्राचीन उल्लेख
(न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया) 'अनेकान्त' वर्ष ७ किरण ७-८ में 'गजपन्थ क्षेत्र
सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे, पुराने उल्लेख' शीर्षकके साथ प्रसिद्ध साहित्यसेवी श्रीमान्
दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ। प० नाथूरामजी प्रेमीका एक संक्षिप्त लेख प्रकट हुश्रा है,
ये साधवो हतमला: सुगति प्रयाताः, जिसमे आपने गजपन्थक्षेत्रके अस्तित्व विषयक दो फराने स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन ॥३०॥ उल्लेख प्रस्तुत किये हैं और अपने उस विचारमे संशोधन यहाँ पूज्यगद स्वामं ने 'गजपथे' पदके द्वारा गजपन्थाकिया है जिसमे आपने गजपन्धक्षेत्रको आधुनिक बतलाया गिरिका स्पष्टतया उल्लेख किया है। 'गजपथ' शब्द था-अपनी उस ममयकी खोजके श्राधारपर उसे वि० संस्कृत भाषाका है और 'गजपथ प्राकृत तथा अपभ्रंशका स० १७४६ के पहिलेका स्वीकार नही किया था। उनके के है। और यही शब्द हिन्दी-भाषामें भी युक्त किया जाता प्राप्त उल्लेख वि० सं० १७४६ के पूर्व के हैं। उनमें एक ता है। अत एव 'गजपथ' और 'गजपन्य' दोनों एक हैं। श्रुतसागर सूरिका जो १६ वी शताब्दीक बहुश्रत विद्वान् पूज्यपादका समय श्रामतौरसे ईसाकी पांचवी और वि. की माने जाते हैं। दूसरा उल्लेख शान्तिनाथ-चरितके कर्ता छठी शताब्दी माना जाता है। प्रेमीजी भी पूज्यपादका यही असग कविका है जिनका समय उनके महाकर चरितपरसे समय स्वीकार करते हैं (जैनसाहित्य और इतिहास पृ० शकसं० ११० (वि० सं० १०४५) सर्वसम्मत है। असग १६) । अत: गजपन्य क्षेत्र वि० की ६ ठी शताब्दीमे भी कविने गजपन्य क्षेत्रका उल्लेख अपने शान्तिनाथचारत निर्वाण क्षेत्र स्वीकृत किया जाता था। अर्थात्---असग कवि (७-६८) मे किया है । शान्तिनाथ चरित महावीर-चरितके (११ वी शताब्दी) से भी वह ५०० वर्ष पुराना निर्वाणक्षेत्र उपरान्त लिखा गया है। अत: वि० सं० १०५० के लग- है और उस समय वह जैनपरम्परामें निर्वाणक्षेत्रके रूपमें ही भग गजपन्य एक निर्वाणक्षेत्रके रूपमे प्रसिद्ध था और वह प्रति प्रसिद्ध था। नासिकनगरके निकटवर्ती माना जाता था। इन दो उल्लेखो
यह तो निश्चित और विद्वन्मान्य है कि निर्वाण भक्त से अन्वेषणप्रिय प्रेम जाने गजपन्य क्षेत्रके अस्तित्वकी और सिद्धभक्ति श्रादि सर्व भक्तियोकी रचनाएँ प्रभाचन्द्राप्रामाणिकता स्वतः स्वीकार करली है और उसे पराना चार्य के क्रियाकलापगत निम्न उल्लेखानुसार पुज्याद -११ वीं शताब्दी तकका क्षेत्र मान लिया है।
स्वामीकी हे :
"संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः। अभी मैं प्रो. हीरालालजी एम० ए० के एक प्रश्नका प्राकृत.स्त कुन्दकुन्दाचार्यकृताः।" उत्त देनेके लिये पूज्यपादकी नन्दीश्वर-भक्तिको देख रहा
-दशभक्त्या दिसं० टी० पृ०६१। था उसी सिलसिले में दशभक्त्यादिसंग्रहके पन्ने पलटते हए प्रेमीजी स्वयं भी प्रभाचन्द्राचार्यके इसी उल्लेख नुसार पूज्यपादकी निर्वाणभक्तिके उस पद्यपर मेरी दृष्टि पड़ी जहाँ संस्कृत की दशों भक्तियोको जिनमे निर्वाणभक्ति भी सम्मिलित पूज्यपादने भी 'गजपन्य क्षेत्रका उल्लेख करते हुए उसको है, पूज्यपादकृत स्वीकार करते हैं और अपनी स्वीकृतिमें निर्वाणक्षेत्रोंमें गिनाया है। पूज्यपादकी निर्वाणभक्तिका वह हेतुरूपसे यह भी कहते है कि 'सिद्धभक्ति श्रादिका अप्रतिहत पद्य इस प्रकार है :--
प्रवाह और गम्भीर शैली देख कर यह सम्भव भी मालूम
होता है।'-(जैनमाहित्य और इतिहास पृ० १२१)। १देखो, 'जैनसाहिस्य और इतिहास' गत 'हमारे तीर्थक्षेत्र इमसे यह निर्विवाद सिद्ध है कि असग कविसे भी पांचसौ शीर्षक लेख।
वर्ष पूर्व के साहित्यमें गजपन्थक्षेत्रका समुल्लेख मिलता है।