________________
१७४
अनेकान्त
[ वर्ष ६
पूजा भक्ति करने और पव मनानेकी जो प्रथायें प्राचीन कासे जारी थीं उनसे महावीरके उत्तरकालमें याज्ञिक क्रियाकाण्डों के उत्सव बन्द होजानेपर - भारत के अन्य धर्म वाले बडे प्रभावित हुए । ईसाकी पहली और दूसरी सदके करीब हम देखते हैं कि जैनियोंके समान बौद्ध और हिन्दु भी अपने अपने माननीय महापुरुषो की मूर्तियाँ और मन्दिर बनाने, उनकी भक्ति करने में लग गये। उस समय शुरू में बौद्धोंने भगवान बुद्ध और हिन्दुओंोंने भगवान कृष्ण की मृनियां निर्माण की। पीछे तो इस प्रथाने इतना जोर पकड़ा और मूर्तिकलाने इतनी उन्नति की, कि भारत में ब्रह्मा, शिव, पार्वती, गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती, कृष्ण के अतिरिक्त विष्णुकं अन्य अवतारी, बोधिसत्व आदि अनेक प्रकारकी सौम्य मूर्तियोकी एक बादसी आगई। फिर क्या था, जैन, बौद्ध, और हिन्दु सभी धर्मवालोंने अपने अपने महापुरुषां की मूर्तिया और मन्दिर बनाकर मारे भारतको ढांक दिया।
भगवान महावीरने अपने मानेके विभिन्न विचारों
और मान्यताची एकता आनेके लिये जिम अनेकान्तवाद श्रथवा स्याद्वाद (Relativity) के मिद्धान्तो को जन्म दिया था, उसने भारतीय विचारकोंमें सत्यको अनेक पहलुओं देखने और जाननेके लिये एक विशेष स्फूर्ति पैदा करदी इमये भारतको धार्मिक साहित्यके अतिरिक्त सभी प्रकारका साहित्य सृजन करने में बड़ी प्रगति मिली। महावीरके पासकोने तो इम दिशामें खास उत्साह दिखलाया। उन्होने भारतके साहित्य और कलाका कोई क्षेत्र भी ऐसा न छोटा जिसमे उन्होंने अपनी स्वतन्त्र रचनायें और टीका करके उसे ऊँचा न उठाया हो। इसी लिये हम देखते हैं कि अन्य धर्मो की तरह जैनसाहित्य केवल दार्शनिक, नैनिक और धार्मिक विचारों ही भरडार नही है बल्कि वह इतिहास, पुराण, कथा, व्याख्यान, स्तोत्र,
धर्म लोगोंके जीवन में उतरते उतरने इतना गहरा घर कर गया कि इसके विरुद्ध चजनेस सभीको लोकनिन्द्राका भय होने लगा। इसी कारणम महावीरके उत्तरगगलमे हिन्दु स्मृतिकारी और पुराणकागेने जितना श्राधार-सम्बन्धी साहित्य लिखा है, उस सबने उन्होंने नरमेध अश्वमे पशुबति और मांसाहारको लोकविरुद्ध होनेसे त्याज्य उहगया है" ।
जैनधर्मक श्राध्यात्मिक विचारोका भी भारतीय संस्कृति पर कुछ कम प्रभाव नही पड़ा है। पशुबलि और मांसाहार के बन्द होनेस याज्ञिक क्रियाकाण्डको भी बहुत धक्का पहुंचा, और होते होते वह भी मदाके लिये भारत में विदा हो गया । उसके स्थान में मदाचारको बढी मान्यता मिली। यम नियम व्रत, उपवास, दान, संयम ही लोगों के जीवन के पुन धर्म बन गये । ज्ञन, ध्यान, सन्यास और तपस्वी त्यागी वीर मदापुरीकी मणिकं पुराने आध्यात्मिक मार्गोका पुनरुत्थान हुआ । महावीरकं उपरान्त वैदिक संहितार्थी ब्राह्मी और औसू ब्राह्मणग्रन्था श्रौतसूत्रां जैसे क्रियाका एडी साहित्यकी बजाय हिन्दुओमे उपनिषद् ब्रह्मसूत्र, गीता, योगवासिष्ट अथवा रामायण जैसे श्रध्यत्मिक और विरक धोका अधिक महत्व मिला हम सम्बन्धमें बहुतम विद्वानोका मत है कि हिन्दुम जो २४ अवतारोंकी कल्पना पैदा हुई, उसका श्रेय भी जैनियोकी २४ तीर्थङ्कर वाली मान्यताको ही है। कुछ भी हो, इतनी बात सो प्रत्यक्ष है कि इन्द्र अनि, वायु, वहया सरीखे प्रोप्रियमनोकल्पित देवताओंके स्थान जो महत्ता भगवान कृष्ण और भगवान राम जैस कमंट ऐतिहासिक क्षत्रिय वीरो को मिली है उसका श्रेय भी भारतकी उस प्राचीन श्रमण सम्कृतिको ही है, जो सदा महापुरषोको साक्षात् देवता अथवा दिव्य श्रवतार मानकर पूजनी रही है।
काव्य, नाटक चम्पू, छन्द, श्रलंकार, कोप, व्याकरण,
भारतीय कला और साहित्यमें जैनधर्म भूगोल, ज्योतिष, गणित, राजनीति यन्त्र, मन्त्र, सम्
का स्थान
इन अध्यात्मवादी धोके उपासक लोग अपने माननीय तीर्थपुरोंकी मूर्तियां और मन्दिर बनाने, उनकी १-या स्मृति १.१५६, भारदीय पुराण २२१२१६ श्राकालीन मा० संस्कृत पृ० ३४ २- श्रोझा जी मध्यकालीन भा० संस्कृति पृ० १७
श्रायुर्वेद, बनस्पतिविद्या, मृगपक्षिविद्या, वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, शिल्पकला और संगीतकला भावके अनेक लोकोपयोगी ग्रन्थोंसे भी भरपूर इतिहासके लिये तो जैनियो के साहित्य में इतनी अधिक और प्रामाणिक १- Dr. Winternitz, History of Indian Lit vol II pp. 591,595
..