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अनेकान्त
[वर्षे ७
और प्राचाणकी एकाका होना अनिवार्य है। इनकी कारण था कि इतनी चक्रवर्तीकी संपदाके स्वामी होनेपर एकताके होने पर ही इस प्राणीका जन्म-मरण रूपी रोग भी वैरागी? किंतु उनका ध्यान प्रारमाकी ओर भी था । यही दूर हो सकता है।
कारण है कि उनके वैराग्यके विषयमें जानकारीके लिये इस रत्नत्रयमेमे सम्यग्दर्शनके विषय में प्राचार्योंने पानेशले व्यक्ति के लिये कहा गया था कि भाई आप इस "तस्वश्रद्धान" अथवा "देवगुरुशास्त्र का विश्वास होना" कटोरीको परिपूर्णरीत्या तेलसे भर कर हथेली पर रख कर "भेद विज्ञान" या "प्रामस्वरूपकी जानकारी" का होना हमारे सम्पूर्ण कटकको देख पाइये पर ध्यान रहे कि कटोरी में श्रादि प्रकारम सम्यग्दर्शनका लक्षण किया है। यद्यपे से एक बूद भी तैल गिरने न पावे, पानेके पश्चात्, क्या सम्यग्दर्शनकी परिभाषायें कई प्रकारकी हैं फिर भी उन देखा? इस प्रश्न के उत्तरमें उमने यही जवाब दिया कि सबका निचोड़ एक ही है, जहां नत्वश्रद्धानादि कोई भी एक महाराज यद्यपि सब कुछ देखा, पर कुछ भी नहीं देखा, है वहां बाकीका सब परिभाषाये घटित होती हैं । तार्य मात्र ध्यान कटोरी पर रहा कि एक बूंद भी गिर न जाय। यह है कि शब्दभेदके सिवाय अर्थभेद नहीं है।
अस्तु । इसी प्रकारका भरतजीका वैराग्य था। यह है एक जब हम प्राणीको प्रारमस्वरूपके प्रति सचा विश्वास सम्यग्दृष्टीके विचारोंका नमूना । हां ! देखिये कि सम्यग्दृष्टी हो जाता है कि हमारी प्रास्माका स्वभाव पुद्गलादि द्रव्यों की उपरोक्त भावना होते हुये भी वह गृहस्थाश्रमकी से बिलकुल भिन्न सच्चिदानन्द स्वरूप है किन्तु इसकी जो अवस्थामें कर्म मनित शरीराति एवं कुटुम्बादिकका ध्यान यह मनुष्यादिपर्याय व क्रोधादि रूप अवस्थायें देखी जातीं रखता अवश्य है पर उसका विश्वास प्राचार्य श्री शुभचन्द्र हैं, यह सब कर्म जनित है। कर्मके बजपर ही यह सब जीके शब्दोंमें कर्म जनित पर्यायोंके प्रति उसी प्रकारका अवस्थायें हो रही हैं, वास्तव में मेरा स्वरूप इनसे भिन्न होता है कि:है। वह सोचता है कि:
अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुषः । "वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा,
न देवः किंतु सिद्धात्मा सोऽयं कर्मविक्रमः।। भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः।"
ताविक बात तो यह है कि सम्यग्दृष्टीको स्व अर्थात्-जो यह रागद्वेष मोहादिरूप अवस्थाये एवं और परविषयक परिपूण विवेक हो जाता है। उसकी वर्णादि रूप अवस्थाये हैं ये सब मुझसे भिन्न हैं, इनसे यह निश्चल भेदबुद्धि हो जाती है कि जिसके बलपर उसे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। उस समय उपकी यह नियमत: मुक्तिकी प्राप्ति होती है। नियम है कि:भारणा होती है कि मेरी आमाका जो ज्ञान-दर्शनरूप म्व- "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । भाव है इसमे भिन्न जो भी पर पदार्थों के प्रति राग-भाव तस्यैवाभावतः बद्धाः बद्धा ये किल केचन ॥" देखा जाता है वह प्रेम उपरी हो, प्रांतरिक नही हो, अर्थात् इससे सिद्ध है कि मुक्तिकी प्राप्तिके लिये सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टिका पर-पदार्थोंके प्रति वैसा ही प्रम होता है जैसा (भेद विज्ञ न) आनिवार्य है। इस वाक्यसे मात्र सम्यग्दर्शन कि एक वेश्याका परपुरुष के साथ । अथवा एक मुनीम को ही नहीं समझना चाहिये, किंतु सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके गुमास्तेका मालिकके बिये नफा नुकसानके समय उपरी साथ २ ज्ञानकी और यथा समय चारित्रकी उत्पत्ति नियाहर्ष-विषाद, वहां उसकी निजस्व बुद्धि न होने से ऊपरी ही माही है, इससे ही मोक्ष प्राप्तिके लिये सम्यग्दर्शनका हर्ष-विषाद होता है। यही बात है कि सम्यग्दृष्टिका पर. होना अनिवार्य है, सम्यग्दर्शनके प्रभावमें मुमिपद भी क्यों पदार्थों में प्रांतरिक प्रेम नहीं होता है । मात्र ऊपरी प्रेम न प्राप्त कर लिया जाय किंतु वह पूज्यता और मानता नहीं चारित्रमोहनीयके उदयजन्य होता है। फिर भी मम्यग्दृष्टी जो कि एक सम्यग्दृष्टीकी है भले ही वह गृहस्थ क्यों न हो की भावना पदैव प्रात्मनस्वकी ओर रहती है, उसे ये विद्वद्वर पं. दौलतरामजीके शब्दों मेंबाह्याडम्बा विचलित नहीं कर पाते हैं। देखिये भरत महा- "चरित मोह वश लेश न संजम पै सुखनाप जले है"। राजके विषयमें प्रसिद्धि हैं कि वह घरमें ही वैरागी थे, ज्या तथा पूज्यवर कुंदकुंदाचार्यजीका भी यही अभिमत