Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सरतेहै।
बहिरङ्ग चक्षुः स्पर्शन इन्द्रियोंसे भी जाने जाते हैं किन्तु कर्म ( परिस्पंदक्रिया ) पुद्गलकी पर्याय नहीं है, वैशेषिकोंके मतमें कर्म स्वतन्त्र पदार्थ है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह दोष भी ठीक नहीं है क्योंकि कर्मको भी जीव और पुद्गल द्रन्यकी पर्यायरूपता इष्ट की गयी है । गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है किंतु जैनसिद्धान्तमे ये सब जीव आदि द्रव्योंके पर्यायरूप अंश हैं । हेतु रहगया सो साध्य भी ठहर गया ।।
उक्त कथनके द्वारा स्पर्श, रस, आदि गुणोंकरके भी साभिमान दिया गया व्यभिचार हटा दिया जाता है कारण कि स्पर्श आदि गुण भी स्वतन्त्र तत्त्व नहीं हैं किंतु पुद्गलद्रव्यके ही विकार है । द्रव्यकी सहभावी पर्यायोंको गुण कहते हैं।
सतो हेतोरसिद्धिरेवेति नातोऽमिलापस्य सर्वगतत्वसाधनं यतो युगपद्भिन्नदेशतयोपलभ्यमानता अस्याबाथिता न भवेत्, प्रत्यभिज्ञानस्य वा तदेकत्वपरामर्शिनोऽनुमानवाधितत्वेन पुरुषव्यापारात्प्राक् सद्भावावेदकत्वाभावाचदभिव्यंग्यत्वाभाध इति तज्जन्यमेव वचन सिद्ध पर्यायार्थतः पौरुषेयम् ।
नैयायिकों या वैशेषिकोंने शब्दको गुण पदार्थ माना है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और मन इन पांच द्रव्योंको वे मूर्त मानते हैं । शब्दको अमूर्त मानते हैं । यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिकूल वायुसे शब्दका अवरोध हो जाता है। अनुकूल वायुसे शब्दके आनेमें प्रेरणा होती है । ढोलकी आवाजमे तृतीकी आवाज छिप जाती है । गुफा आदिमें शब्दका आघात होकर प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है। महान् शब्दोंसे गर्भ गिर जाते हैं । कान फट जाते हैं । उस कारणसे सिद्ध हुआ कि मूर्त शब्द मूर्तिमान पुद्गलद्रव्यकी अनित्य पर्याय है । मीमांसकोंने शब्दको सर्वत्र व्यापक सिद्ध करने के लिये नित्यद्रव्य होकर अमूर्तपना जो हेतु दिया था, वह शब्दरूप पक्षमें न रहनेसे असिद्ध हेत्वाभास ही है। इस हेतुसे शब्दका व्यापकपना जब सिद्ध न हुआ तो जैनोंकी ओरसे शन्दके नानात्यको सिद्ध करने के लिये दिये गये एक समयमै भिन्न भिन्न देशोंमें सुनायी देनेरूप इस हेतुका वाधारहितपना विशेषण क्यों नहीं सिद्ध होगा ! और जब बाधारहित भिन्नदशोमें भी उसी समय नाना व्यक्तियोंको सुनायी देनेसे शब्दमें अनेकपना सिद्ध हो गया तो मीमांसकोंका पुरुषव्यापारसे पहिले भी उसी शब्दके अस्तित्वको सिद्ध करनेवाला प्रत्यभिज्ञान प्रमाण हमारे अनुमानसे बाधित अवश्य हुआ और जब एकत्वको विषय करनेवाला मीमांसकोंका प्रत्यभिज्ञान अनेकत्वको जाननेवाले समीचीन अनुमानसे बाधित हो गया तो पुरुषके शब्दोच्चारणसे पहिले भी शब्दकी विद्यमानताका कोई प्रमाण न होनेसे उस शब्दके व्यञ्जकोंके द्वारा व्यंग्यपनेका भी अभाव हो गया । इस कारण अभिव्यक्तिबादको छोडकर शब्दको उन भाषावर्गणा, कम्ठ, साल, मृदङ्ग आदिकसे पैदा हुआ ही मानभा चाहिए । उक्त युक्तियोंसे शब्द पर्यायार्थिक नयकी अपक्षास पौरुषेयही सिद्ध हुआ।