Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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मानकोगे तो तीनों या पांचों बंधके कारणोंकी मोक्षके एक ही तत्वज्ञानस्वरूप कारणसे निवृद्धि सिद्ध हो जावेगी। फिर मोक्षके कारणोंको तीन प्रकारका कहना मी जैनोंका युक्तियों से रहित है। यह प्रसंग हो जावेगा । इस प्रकार कोई शंकाकार कहता है। अब अंधकार कहते हैं कि-
तत्वार्थचिन्तामणिः
तदेतदनुकूलं नः सामर्थ्यात् समुपागतम् ।
बन्धप्रत्ययसूत्रस्य पाञ्चभ्यं मोक्षवर्त्मनः ॥ १११ ॥
इस प्रकार यह शंका तो हमको अनुकूल पडती है। इसका हमको खण्डन नहीं करना है । बन्धके पांच कारणोंका निरूपण भी सूत्रकारने ही किया है, मतः बन्धके पांच कारणोंको कहनेवाले सूत्र की सामर्थ्य से ही यह बात अच्छी तरह प्राप्त हो जाती है कि मोक्षका मार्ग मी पांच मकारका है, इसमें सन्देह नहीं । यहां किसी नयसे तीन प्रकारका कह दिया है ।
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सम्यग्दर्शनाविरस्य मादकपायायोगा मोक्षदेतच " इति पंचविधबन्धहेतुपदेशसामलभ्यत एव मोतो! पंचविधत्वं ततो न तदापादनं प्रतिकूलमस्माकं ।
?
बन्धके पांच प्रकार हेतुओंके उपदेशकी सामर्थ्यसे मोक्षके कारणको पांच मकारपना इसी म्यायसे प्राप्त हो ही जाता है कि सम्पादर्शन, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग ये पांच मोक्षके कारण हैं। इन एक एक कारणसे बन्धके एक एक फारणकी निवृत्ति हो जाती है । मस: काकारका वह आपादन करना हमें प्रतिकूल नहीं है, प्रस्युत इष्ठ है। निर्णय यह है कि विवक्षासे पदार्थों की सिद्धि होती है। जैनियोंकी नयचक्रव्यवस्था को समझ लेनेपर उक्त प्रक्रिया बन जाती है। जिन उमास्वामी महाराजने मोक्षके कारण तीन माने हैं, उनहीके अभिप्रायानुसार बन्धके कारण तीन माने जा रहे हैं और उन आचार्य होने पन्धके कारण पछि कहे हैं। अतः मोक्षके कारण मी पांच मानना उनको मभीष्ट प्रतीत होता है। यह नयप्रक्रियाकी योजनासे सुसंगत हो जाता है, जो कि हम प्रायः कह चुके हैं।
सम्यग्ज्ञानमोठदेतोरसंग्रहः स्यादेवमिति चेम, तस्य सद्दर्शनेऽन्तर्भावात् मिथ्याज्ञानस्य मिथ्यादर्शनेऽन्तर्भाववत् । तस्य तत्रानन्तर्भावे वा बोढा मोक्षकार बन्धकारणं धामिमवमेव विरोधाभावादित्युच्यते ।
आक्षेप है कि इस प्रकार पांच प्रकारके मोक्ष हेतुओं के मानने पर मोक्षके कारणोंमें अन्य दार्शनिकों द्वारा मी आवश्यक रूप से माने गये सम्यग्ज्ञानका संग्रह नहीं हो पाता है। सम्यग्दर्शन मौर सम्म चारित्र तो आचुके हैं । किन्तु प्रधानकारण कहे गये ज्ञानका संग्रह नहीं हो पाया है जिसको कि आप जैन भी मानते है । ऐसी अधिक संख्यांके निरूपण करनेसे हानिके अतिरिक कोई काम नहीं है जहां कि मूक ही छूट जाता हो । मन्त्रकार कहते है कि यदि इस प्रकार