Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वार्थचिन्तामणिः
मानना तो आवश्यक ही है, तो फिर अकेले तत्त्वज्ञानको ही मोक्ष और विपर्ययको ही संसारका कारण क्यों न मानलिया जाय ।
एतेषामप्यनेकान्ताश्रयणे श्रेयसी मतिः ।
नान्यथा सर्वथैकान्ते बन्धहेत्वाद्ययोगतः ॥ ११६ ॥ नित्यत्वैकान्तपक्षे हि परिणामनिवृत्तितः ।
नात्मा बन्धादिहेतुः स्यात् क्षणप्रक्षयिचित्तवत् ॥ ११७ ॥
ग्रंथकार समझाते हैं कि इन लोगोंका उक्त कथन ठीक है, किंतु अनेकांत मठका आश्रम लेनेपर ही उनका पूर्वोक्त मन्तव्य कल्याणकारी हो सकता है । अन्यथा नहीं। क्योंकि सर्वथा एकांत मलका अवलम्ब लेनेपर बंध, बंधका हेतु, मोक्ष, मोक्षका कारण, आदि अवस्था नहीं हो सकती है । कोई युक्ति काम नहीं देती है । देखो, जो ही आत्मा पहिले मिध्यादृष्टि था, I सम्यग्दर्शन पर्याय उत्पन्न हो जानेपर वही सम्यग्दृष्टि बन जाता है। यहां आत्मा कथञ्चित् नित्य है और उसकी ये मिथ्यादर्शन आदि तो बदलती रहनेके कति अनिस हैं ।
यदि आप सांख्य या वैशेषिक आत्माको एकांतरूपसे नित्य होना मानमेका पक्ष ग्रहण करेंगे तो अवश्य आत्मामें पर्यायें होनेको निवृत्ति हो जायेगी । अतः वह मात्मा बंध बंधके कारण, मोक्षकारण, और मोक्षरूप आदि पर्योका कारण न बन सकेगा, जैसे कि बौद्धोंसे माना गया एक ही क्षण समूल चूल नष्ट होनेवाला विज्ञानस्वरूप आत्मा विचारा बंघका हेतु नहीं होने पावा है और सर्वथा क्षणिक माने गये आत्माकी अष्टात कारणोंसे मोक्ष भी नहीं हो सकती है।
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परिणामस्याभावे नात्मनि क्रमयोगपये तयोस्तेन व्याप्तत्वात् । पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्थितिलक्षणो हि परिणामो न पूर्वोत्तरक्षणविनाशोत्पादमात्रं स्थितिमात्रं वा प्रवी त्यभावात् । स च क्रमयौगपद्ययोर्व्यापकतया संप्रतीयते । बहिरन्तश्च बाधकाभावान्ना पारमार्थि को यतः स्वयं निवर्त्तमानः क्रमयौगपद्ये न निवर्तयेत् । ते च निवर्तमाने अर्थक्रियासामान्यं निवर्तयतस्ताभ्यां वस्य व्याप्तत्वात् । अर्थक्रियासामान्यं तु यत्र निरतिशयात्मनि न सम्भवति वत्र बंधमोक्षाद्यर्थक्रियाविशेषः कथं सम्भाव्यते । येनाथं तदुपादानहेतुः स्यात्, निरन्वयक्षणिक चित्तस्यापि तदुपादानत्वप्रसङ्गात् ।
आत्मामें परिणाम होनेका अभाव माननेपर कुछ अर्थ, व्यंजन पर्यायोंका क्रमसे होनापन और कितनी ही गुणरूप सहमावी पर्यायोंका एक काटने होनापन ये नहीं बन सकते हैं। क्योंकि क्रम और यौगपद्य वे उस परिणाम करके व्याप्त हो रहे हैं अर्थात् परिणाम होना व्यापक है और उसके