Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
पोद्धों मत ठीक ठीक विचार करनेपर विवक्षित कार्यकारणों में नियमित योग्यता नहीं मन सकसी है। क्योंकि बौद्ध लोग अपने तत्त्व कहे गये स्वलक्षणोंको औपाधिक स्वभावोंसे रहित मानते हैं । कार्यकारणभाव व्यवहारसे ही माना गया है, वास्तविक नहीं। इसका विशेष विवरण यों है कि कार्यकrararas प्रकरणमै योग्यताका अर्थ कारनकी कार्यको पैदा करनेकी शक्ति और कार्यकी कारणसे जन्यपनेकी शक्ति ही है । उस योग्यताका प्रत्येक दिवक्षित कार्य कारणों में नियम करना यही कहा जाता है कि धानके बीज और धानके अंकुरों में भिन्न भिन्न समयवृत्तिपनेकी समानता के होनेपर भी साठी चांवल के बीजकी ही धानके अंकुरको पैदा करनेमें शक्ति है। किंतु जौके बीजकी घानके अंकुर पैदा करने में शक्ति नहीं है । तथा उस जौके बीजकी जोके अंकुर पैदा करनेमें शक्ति है | दां, धानका बीज जौके अंकुरको नहीं उत्पन्न कर सकता है । यही योग्यता कही जाती है ।
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तत्र क्रुतस्तच्छक्तेस्ताच्यः प्रतिनियमः १ स्वभावत इति चेन्न, अप्रत्यक्षत्वात् । परोक्षस्य शक्तिप्रतिनियमस्य पर्यनुयुज्यमानतायां स्वभावेरुत्तरस्यासम्भवात्, अन्यथा सर्वस्य विजयित्वप्रसङ्गात्। प्रत्यक्षप्रतीत एव चार्थे पर्यनुयोगे स्वभावैरुचरस्य स्वयमभिधानात् ।
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ari कार्य, कारण, के प्रकरणमें ऊपर कही गयी उस योग्यतारूप शक्तिका वैसा प्रत्येकमे नियम आप कैसे कर सकेंगे ? बतलाइये। यदि आप बौद्ध लोग पदार्थों के स्वभावसे ही योग्यताक नियम करना मानेगे अर्थात् अभिका कार्य दाइ करना है और सूर्यका कार्य काम करना है। जरू ठण्ड को करता है, यह शक्तियोंका प्रतिनियम उन उन पदार्थोंके स्वभावसे होजाता है । अभि दाइ क्यों करती है ? इसका उत्तर उसका स्वभाव ही है, बद्दी मिलेगा । सो आपका यह कहना हो ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वोंको शक्तियोंका प्रत्यक्ष नहीं होता है । परोक्ष शक्तियों के प्रत्येक विवक्षित पदार्थ नियम करनेका जब हम क्यों करता है ! " यह प्रश्नरूप चोच उठावेंगे, उस समय आप बौद्धकी ओर से पदार्थों के स्वभावों करके उत्तर देना असम्भव है । अन्यथा यानी इसके प्रतिकूल प्रत्यक्ष न करने योग्य कार्यों में भी प्रश्नमाला उठाने पर स्वभावोंके द्वारा उत्तर देदिया जावेगा, तब तो सभी वादी प्रतिवादियोंको बीत जानेका प्रसक्त हो जावेगा, स्वभाव कहकर सभी जीत जावेंगे । अबतक सभी दार्शनिक यही मानते चले आरहे हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा जाने गये ही अर्थमें यदि तर्क उठाया जावे, तब तो वस्तुके स्वभावों करके उत्तर देना समुचित है। किंतु परोक्ष प्रमाण से अविशद जाने गये पदार्थ में प्रश्न उठानेपर वस्तुस्वभावों करके उत्तर नहीं दिया जाता है। इस बातको आप बौद्धोंने भी स्वयं कहा है। भला जिस पदार्थका प्रत्यक्ष ही नहीं है, वहां यह उत्तर कैसे संतोषजनक हो सकता है कि हम क्या करें यह तो वस्तुका स्वभाव ही है। नैयायिकके दोष वेनेपर मीमांसक कह देगा कि शब्दका नित्य होना वस्तुका स्वभाव है और मीमांसकके दोषोत्यांनपर नैयायिक कह देगा कि शब्दका मनिस्वपन वस्तुस्वभाव है | स्वभाव कहकर जीतनकी व्यवस्था होजानेपर तो व्यभिचारी मांसभक्षी, चोर आदि भी पूरा लाभ उठालेंगे ।