Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
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अर्थात् वै वस्तुभूत होते हुये भी शइसे न कहे जानेके कारण अवाच्य होवे । जैन सिद्धान्तमै पञ्चाध्यायी ग्रन्थ के अनुसार तत्त्वको निर्विकल्पक यानी शब्दयोजनासे रहित माना है । सर्व ही तत्त्व कथंचित् अवाच्य हैं। इस प्रकार कहीं भी उपप्लवका एकान्त कोई नहीं रहा । जैसे कि उपप्लव या अविचार अथवा उन दोनोंके कारण पर्यनुयोग, संशय आदि ये तुम्हारे माने हुये तत्त्व उपप्लव और अनुपप्लवरूप करके नहीं कहे जाते हैं। किन्तु फिर भी अपने स्वरूपसे तो कड़े जाते है, अतः वाच्य हैं, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कह सकते हैं कि उसी प्रकार सम्पूर्ण प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्व भी अन्य धर्मोकरके अवाच्य हैं और अपने निश्चित स्वभावों करके वाच्य हैं, इस प्रकार अनेकान्त के प्रतिपादन करनेवाले स्याद्वाद सिद्धान्त से ही आपकी उपप्लववादमे प्रवृत्ति हो सकती है । सभी प्रकारोंसे एकान्त माननेमें वह आपका उपप्लव मानना नहीं बन सकेगा । भावार्थ - उपप्लवको आपने उपप्लुत और अनुपप्लुत मान लिया तथा उपप्लवमें अवाच्यपना और वाच्यपना भी रह गया, यही तो अनेकान्त है । उपप्लववाद, संवेदनाद्वैत और शून्यवाद इन सबकी स्थिति अनेकान्तका सहारा लेने पर ही हो सकती है। अन्यथा नहीं ।
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कोयने कान्तादेव प्रवर्तेत सोप्यन्यस्मादने कान्वादित्यनवस्थानात् कुतः प्रकृताने कान्तसिद्धिः १ सुदूरमप्यनुसु त्याने कान्तस्यैकान्तात्मवृत्तौ न सर्वस्यानेप्रमाणार्पणादनेकान्त इत्यनेकान्तोप्यनेकान्तः कथमवतिष्ठते १ कान्तात् सिद्धिः । प्रमाणस्याने कान्तात्मकत्वेनानवस्थानस्य परिहर्तुमशक्तेरेकान्तात्मकत्वे प्रतिज्ञाहानिप्रसक्तेः । नयस्याप्येकान्तारमकत्वे अयमेव दोषोऽनेकान्तात्मकत्वे सेवानवस्येति केचित् ।
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यहां अनेकान्त सिद्धान्तके ऊपर किसीका आक्षेप सहित प्रश्न है कि आप ही बतलाइये ! जब सब ही तत्त्वोंकी सिद्धि आप जैन अनेकान्तसे ही होना मानते हैं तो इस प्रकार आपका अनेकांत मी अनेक अस्तिपन, नाखिपन आदि धर्मोसे ही प्रवृत्ति करेगा और वह अनेक धर्मरूप अनेकान्त भी पुनः अभ्य अनेक धर्मोको धारण करेगा तथा उस अनेकान्तके मध्यवर्ती धर्मो के लिये भी अन्य अनेकान्वोंकी मावश्यकता पडेगी । इस प्रकार अनवस्था दोष होजाने से आप जैन लोग प्रकरण पडे हुए पहिले अनेकान्तकी सिद्धि कैसे कर सकेंगे : बताओ । यो अनेकान्तोंके पीछे चलते चलते बहुत दूर भी जाकर यदि एकान्त से ही अनेकान्त की प्रवृत्ति मानोगे तो अनवस्था दोष टल गया, किन्तु सर्वकी अनेकान्त से सिद्धि होती है, यह आपका सिद्धान्त न रहा । फिर आपने जैनेन्द्र व्याकरण के आदि में " सिद्धिरने कान्तात् " यों अधिकारसूत्र बनाकर अनेकान्तसे सिद्धि होनेका घोषण व्यर्थ ही किया । यदि अनवस्थाको दूर करनेके लिये विवक्षाका सहारा लेकर यो कहें कि प्रमाणकी विवक्षासे अनेकान्त माना गया है । अस्तु ! यों ही सही । किन्तु इस प्रकार प्रमाणकी अर्पणासे माना गया अनेकान्त भी तो अनेकान्त है। ऐसा श्री समन्तभद्र आचार्यने कहा है । अनेकान्तो यनेकान्तः " ( बृद्दत्स्वयंभू स्तोत्र ) वह कैसे व्यवस्थित होगा । और प्रमाण भी तो
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