Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 621
________________ सत्यापितामणिः - प्रमाणतत्त्रमें उक्त धर्मोद्वारा संशयपूर्वक प्रक्षमाला उठाकर विचार करते हुए प्रमाण, प्रमेय, आदितत्त्वोंका खण्डन कर देखेंगे । व्याघात नहीं है । आचार्य समझाते हैं कि यदि उपप्लववादी ऐसा कहेगे तो हम कहते हैं फिर इस समय प्रमाणतत्त्वमें क्यों आक्षेप सहित प्रश्न उठाये जा रहे हैं ! क्योंकि आपने प्रमाणतत्त्वको अपने बलबूतेसे स्वकीय स्वभावोंके द्वारा ही सिद्ध हुआ मान लिया है। हमारे परिश्रमके विना ही आपके प्रति प्रमाणतत्त्व सिद्ध होजाता है । फिर उसका खण्डन कैसा!। ___ स्यान्मतं । न विचारात्प्रमाणस्यादुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वादयः स्वभावाः प्रसिद्धार परोपगममात्रेप सेकसिदे। संशावतारालागुषोझो हुन्छ एवेति तदप्यसारं, अविचारस्य प्रमाणस्वभावच्यवस्थानप्रतिक्षेपकारिणः स्वयमुपप्लुतत्वात् । तस्यानुपप्लुतत्वे वा कथं सर्वथोपप्लवः । पुनः उपप्लववाविओंका यह मन्तव्य होये कि हमने निर्दोष कारणोंसे पैदा होने योग्यपन प्रमाणका स्वभाव कह दिया । इतनेसे ही आप ले उडे और हमारे सामने विना परिश्रम प्रमाण तत्त्वको सिद्ध करने के लिये आपने अपनी कृतकार्यता प्रगट कर दी। किन्तु हमने दूसरे आप लोगों के केवल स्वीकार करनेसे ही वे निर्दोष समुदित कारकोंसे पैदा होजानापन और बाधारहिसपना भादिक स्वभाव प्रभाणके मान लिये हैं। लोकव्यवहारमें प्रसिद्ध बातको योडी देरके लिये स्वीकार कर लिया जाता है। किन्तु विचार करनेपर वे प्रमाणके स्वभाव अच्छी तरह सिद्ध नहीं होपाते हैं । इस कारण उक्त चार संशयोंको उतारकर प्रमाणतत्त्वमें आप लोगोंके ऊपर हमारा कुचोध उठाना युक्त ही है । मन्मकार कहते हैं कि इस प्रकार उनका कहना मी साररहित है। क्योंकि विचारते समय आप प्रमाण प्रमेय आदि तत्त्वोंको मान लेते हैं। किन्तु विचार के पीछे अविचारको प्रमाणके प्रवृत्तिसामर्थ्य आदि स्वभावोंकी व्यवस्थाका लणन करनेवाला स्वीकार करते हैं। किन्तु वह अविचार मी तो आपने स्वयं उपप्लुत माना है अर्थात् वह अविचार खण्डनीय, शून्यरूप, द्वच्छ है । तुच्छपदार्थ किसी भी अर्थक्रियाको नहीं करता है। यदि आप उस भविचारको न कुछ, तुच्छरूप उपप्लुत न मानेंगे तो सभी प्रकारसे उपप्लव कैसे बना ! क्योंकि वस्तुभूत एक अविचारतत्त्व उपप्लवरहित सिद्ध होगया। ___ यदि पुनरुपप्लुतानुपप्लुतत्वाभ्यामवाच्योऽविचारस्तदा सर्व प्रमाणप्रमेयतवं तथ:स्त्विति न कचिदुपप्लुवैकान्तो नाम । यथा चोपप्लयोऽविचारो वा तदेतुरुपप्लुतत्वानुपप्लुतत्वाभ्यामवाल्य: स्वरूपेण तु वाया तथा सर्व तश्वामित्मनेकान्तादेवोपालुतवादे पत्तिा, सर्वथैकान्ते उदयोगात् । यदि आप फिर यों कहे कि विचार करने के बाद जो अविचार दशा है, वह उपप्लव सहितपने करके भी नहीं कही जाती है और अनुपप्लुत यानी वस्तुपने करके भी नहीं कही जा सकती है । अतः वह भविचार अवाच्य है । तब तो सर्व ही प्रमाण प्रमेयत्तत्त्व भी वैसे ही हो जावो ।

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