Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 638
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः नाना नानात्मनी नवनयनयुतं तन्न दुर्णीतिमानं । तत्त्वश्रद्धान शुध्यध्युषिततनु बृहद्बोधधामाधिरूढम् ॥ चञ्चच्चारित्रचक्रं प्रचुरपरिचरच्चण्डकर्मारिसेनां । सातुं साक्षात्समर्थं घटयतु सुधियां सिद्धसाम्राज्यलक्ष्मीम् ॥ १ ॥ ६३२ प्रथम सूत्रका भाष्य समाप्त करते हुए श्रीविद्यानंद आचार्य सूत्रके वाच्यार्थ अनुसार मध्य जीवोंको भाशीर्वाद देते हैं कि दैदीप्यमान चारित्रगुणरूपी चक्र बुद्धिमान् भव्य जीवोंको सिद्ध पदवीका प्राप्त हो जानारूप मोक्षसाम्राज्यके चक्रवर्तीपनेकी लक्ष्मीको मिलावे कैस है, वह चारित्ररूपी चक्र ! अनेक और एक है आत्मा के हितरूप पदार्थ जिसमें । तथा भेद और अभेदको जाननेवाली नयोंके प्राप्त करनेसे युक्त हो रहा है। फिर कैसा है, वह चारित्रचक खोटे नय और खोटे ज्ञानकी जहां सम्भावना नहीं है । पुनः कैसा है वह चारित्र चक्र ! तत्वोंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनकी शुद्धिसे आक्रांत हो रहा है शरीर जिसका, तथा बढे हुए केवलज्ञानरूपी तेज समूह पर अधिकार जमाकर स्थित हो रहा है। फिर भी कैसा है चारित्र गुण कि अत्यंत व्यधिक और आस्माके चारों और फैले हुए प्रचण्ड शक्तिवाले कर्मरूप शत्रुओं की सेना को अव्यव हित उत्तरकालमे नष्ट करनेके लिये समर्थ है। इस लोक में दिये गये चारित्रगुणके विशेषण रूपकके अनुसार चक्ररलमें भी घट जाते हैं। जैसे कि सहस्रदेवोंसे रक्षित किया गया चक्रवर्तीका चक्ररश्न चक्रवर्तीपनकी लक्ष्मीको प्राप्त करा देता है, वैसे ही चारित्ररल मोक्षलक्ष्मी को मिला देता है। चक्रवर्तीका चक्र भी अनेक और एक आक्ष्मीय और आत्माका rिa करनेवाला है। राजनीतिके अनुसार ले जाना, चलना, चलाना आदिसे युक्त है। उसमें अनेक अर हैं। चक्रके सामने किसी भी राजाकी खोटी नीति और गर्व नहीं चलता है । चक्रवर्ती अपने चकपर पूरी श्रद्धा रखता है । चक्रका स्वच्छ वर्ण है। उसमें बड़ा भारी तेज हैं। वह चक्र क्रोधी शत्रुओं की सेनाको अतिशीघ्र नष्ट कर देता है । इस प्रकार ग्रंथके मध्य और पहिले सूत्र संबंधी व्याख्यानके अंतमै मङ्गलाचरण करते हुये आचार्य महाराज प्रकृतसूत्रकों कार्यमें परिणति करानेकी भावना करते हैं । इति तवार्थ- श्लोकवार्तिकालंकारे प्रथमाध्यायस्य प्रथममान्तिकम् ।। इसप्रकार श्री महर्षि विद्यानंद स्वामिके द्वारा विरचित तत्वार्थ - श्लोकवार्तिकालंकार नामके महान ग्रंथमें पहिले अध्यायका पहिला आन्हिक समाप्त हुआ

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