Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सस्वाचिन्तामणिः
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युक्तियोंसे भी रोग आदिका दृष्टांत या सायको युE किया है। कापसा, गन आदि कियामि मुनियों को प्रश्नम, सुख प्राप्त होता है। असंयम और मिथ्यासंयोम मंतर है। बंधक कारण तीन है। इसीलिये मोक्षके कारण तीन हैं। मिध्यादर्शन, भविरति आदि पांच प्रकार के बंधके कारण भी सामान्यरूपसे तीनमें मभित होजाते हैं। यहां प्रमाद और कषायोंका अच्छा विवेचन किया है । बंधके कारण पांच होनेपर मोक्षके कारण मी पांच होजावे तो कोई हानि नहीं है। मेदकी विवक्षा होनेपर कोई विरोध नहीं आता है। छह भी होसकते हैं। गुणोंके प्रगट होजानेपर प्रतिपक्षी दोषोंसे उत्पन्न होनेवाले बंषोंकी निवृत्ति होजाती है। जिस कार्यको जितनी सामग्रीकी मावश्यकता है, वह कार्य उतनी ही सामग्रीसे उत्पन्न होगा यह विचार मी अनेकांत मान लेनेपर मनता है। सर्वधा एकांत माननेपर नहीं बनसकता है। सम्पदर्शन आदि गुणोंका परिणामी आत्मासे तादाम्यसंबंध हो रहा है। यहां अनेकांतमतका और उत्पाद, व्यय, धौव्यका अच्छा विचार किया है । चित्रज्ञान, सामान्यविशेष, इन दृष्टांतोंसे अनेकांतको पुष्ट करते हुए सप्तमंगीका मी विचार गर्मित कर दिया है । सर्वथा क्षणिक और कूटस्खनित्यम क्रियाकारक व्यवस्था नहीं बन पाती है । मन्यवादियोंकी मानी हुयी योग्यताका खण्डनकर सिद्धांवमें मानी हुयी कार्यकारणभावकी योग्यताका अच्छा विचार किया है। अनेकांतवादफे विना पंध, धका कारण और मोक्ष, मोक्षका कारण इनकी व्यवस्था नहीं बनती है । संवेदनाद्वैत और पुरुषाद्वैत सिद्ध नहीं हो सकते हैं । वेदांत वादियोंकी अविद्या और बौद्धोंकी संवृत्ति अवस्तुरूप है। अतः व्यवहारमें भी प्रयोजक नहीं हैं। शून्यवाद और तस्वोपप्लववादके अनुसार किसी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकती है और न तत्वोंका रूपन ही हो सकता है । इनको भी अवश्य अनेकांतमतकी शरण लेनी पड़ेगी। सर्वत्र अनेकांत छाया हुआ है । अनेकांतम मी अतेकांत है। प्रमाणकी अर्पणासे अनेकांत है और सुनवकी अपेक्षासे एकांत है । स्याद्वादियों के मसमें यहां अनवस्था और प्रतिज्ञाहानि दोष नहीं होते हैं । ग्राह्यप्राहक आदि भावों को मानोगे तो मानने पड़ेंगे और न मानोगे तो भी वे गले पड जागे । संवेदनाद्वैत वादी स्वमके समान संवृत्तिसे सबको सिद्ध मानेंगे, उन्हें आगृत अवस्थाके पदार्थ परमार्थरूप अवश्य स्वीकार करने पड़ेंगे। जो बाधारहित ज्ञानके विषयभूत पदार्थ हैं, वे वास्तविक है। ज्ञानके बाध्यपने और अबाध्यपनेका निर्णय अभ्यास दशामें स्वतः और अनभ्यास दशा परतः हो जाता है । इस कारण मिथ्या एकांतों में बंघ, मोक्ष व्यवस्था नहीं बनती है । स्याहादियोका माना गया रत्नत्रय ही सहकारियोंसे युक्त होकर मोक्षका साधक है। इस प्रकार अनेक मिथ्या मोंका लण्डन करके श्रीविषानेद आचार्य पहिले सूत्रका व्याख्यान कर चुके हैं। अंतमे प्रसादस्वरूप पथ द्वारा आशीर्वाद देते हैं कि चारित्र गुण बुद्धिमान् वादी प्रतिवादियोंको स्नाय मोक्ष लक्ष्मीकी मासिका आयोजन कर देवे | यह प्रथम आहिकका संक्षिप्त विवरण है।