Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवाचिन्तामणिः
पढे हुए अनेक की सिद्धि अनेकान्त से है । और प्रमाणस्वरूपपनेसे अनेकान्त सिद्ध है । मावा --- प्रमाणसे तत्वोंका विचार करनेपर अनेकान्त प्रतीत होता है। जिन विषयोंका बार बार अभ्यास हो चुका है, उनमें अनवस्था अन्योन्याश्रम आदि दोषोंका अवतार नहीं हैं। द्रव्यमें गुण रहते हैं, गुणो पर्याय रहती है, पर्यायों में अविभाग प्रतिच्छेद रहते हैं। चार पांच कोटी चलकर जिनासा स्वयमेव शान्त हो जाती है । कथञ्चित् भेदाभेदका पक्ष लेनेपर एक धर्म दूसरे धर्मो से सहित बन जाते हैं। यहां कोई कारकपक्ष या ज्ञापकपक्ष नहीं है, जिससे कि अनवस्था आदि हो सके । बालगोपालको अथि, मिट्टी सह अनेक को माननेका अभ्यास पढ रहा है। अन भ्यास दशा अन्य अभ्यस्त शीतल वायु, पुष्पगन्ध आदिले जल में जैसे प्रामाण्य जान लिया जाता है, वैसे ही अनेक धर्मवाले प्रमाणसे अनेकान्तकी सिद्धि हो जाती है।
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तथा तदेकताचनस्यैकांतस्य सुनयत्वेन स्वतः प्रसिद्धेर्नानवस्था प्रतिज्ञाहानिर्वा सम्भवतीति निरूपणात् । वतः सूक्तं 'शून्योपशववादेऽपि अनेकताद्विना स्थिति ' रिति ।
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वैसे ही उस एकांतको सिद्ध करनेवाले समीचीन एकांकी भी अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखने वाले मुनयोंके द्वारा अपने आप मले प्रकार सिद्धि हो जाती है । अर्थात् अर्पित नवसे एकांत हमको इष्ट है। भक्का एकांत ही न होगा तो अनेकांत कहांसे बन जावेगा ! | एक सो हजारों लाखों, आदि सबका पितामह है । अतः अनवस्था दोष और प्रतिज्ञाहानि हमारे ऊपर नहीं सम्मवसे हैं। प्रमाण और नयोंकी साधनासे अनेकांत भी अनेकांतस्वरूप है। इसको हम पहिले भी कह चुके हैं। प्रमाण और नम दोनों में अनवस्था दोष देनेसे आपने अपने आप ही नष्टदग्वाश्वर " इस न्याय से अनवस्थाका वारण कर दिया है। क्योंकि अनेकांत अनेक धर्मको धारण करता है । सभी सो सुनयोंके द्वारा एकांत प्रसिद्ध हो रहा है और सुनयके द्वारा निरूपण किया गया एकांत भी अनेक धर्मो के साथ रहते हुए ही मन रहा है । उस कारण हमने एकसौ छचालीसवीं वार्तिक में बहुत अच्छा ही कहा था कि शून्यवाद और उपवादमे अनेकांसकी शरण किये बिना अपनी अपनी स्थिति नहीं हो सकती है। वनमे जाकर प्रसवश एक नृपके घोडे नष्ट होगये और दूसरेका र बिगड (जल) गया । फिर उस रथमें दूसरे रथके घोडोंको जोडकर दोनों राजा सुखपूर्वक नगरमें are | यह नष्टश्वरमन्याय है I
ग्राह्यग्राहकतेतेन बाध्यबाधकतापि वा । कार्यकारणतादिर्वा नास्त्येवेति निराकृतम् ॥
१४८ ॥
जो शुद्ध संवेदनाद्वैत वादी ऐसा मान रहे हैं कि न तो कोई ज्ञानका ग्राह्य है और न कोई ग्राहका माइक है। न कोई किसीसे बाध्य है और न कोई किसीका बाधक है। तथा च न कोई किसीका कार्य है और न कोई किसीका कारण है। न कोई किसी शुद्धका वाच्य है और न कोई अभिमान किसीका
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