Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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उत्साचिन्तामणिः
पाररूप पानी (बर्फ) की प्रकृति अति उष्ण है । संतप्त लमें जल डाम्नेसे अभिज्वाग पगट हो जाती है, तथा पूर्वमें उदय होनेवाला सूर्य पश्चिममें भी उदय हो जाता है। जबकि पूर्व, पश्चिम दिशाओंका नियम करना भ्रमण करते हुए सूर्यके उदय और अस्त होनेके अधीन है गे हमारे लिये बो पूर्व है, वह दूसरे पूर्व विदेहवागेके लिये पश्चिम बन बैठता है। ऐसे ही को हमारे लिए पश्चिम है, वह पश्चिम-विदेह वालिये पूर्व दिशा है। तभी तो जम्बूदीपमें चारों ओरके क्षेत्रोंसे सुमेरु पर्वत उत्तर दिशामे ही रहता हुआ माना गया है। एक जातिका पत्थर है, जो पानी में तैर जाता है, एक सकटी भी ऐसी होती है, जो पानी में डूब जाती है। " डूबसे को तिनकेका सहारा अच्छा " इस परिभाषाके अनुसार मी काम होता है और उसके विरुद्धसी दीख रही “मोस चाटनेसे प्यास नहीं बुझती है। यह परिभाषा भी अर्थ क्रियायें करा रही हैं। तमेव " बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख "ये लौकिक न्यायके साथ साथ "बिना रोये मा मी दूध नहीं पिलाती " यह न्याय भी प्रयोजनोंको साप रहा है। इन युक्तियोसे सिद्ध होता है कि अनेकांतमतमें कोई विरोष दोष नहीं है। दूसरा दोष वैयधिकरण्य मी स्याद्वादियों के ऊपर लागू नहीं हो सकता है । निषष पर्वतका अधिकरण न्यारा है और नील पर्वतका अधिकरण मित्र है । ऐसी विभिन्न अधिकरणताको वैयधिकरण्य कहते हैं। किंतु वस्तुमें जहां ही सत्पना है, वहीं असत्त्व है। जहां नित्यत्व है, वही अनित्यत्व है । दस औरपियोंको पोंटकर बनी हुषी गोलीके छोटेसे टुकडेमें भी दसों भौषषियोंका रस विधमान है। संयोग संबंधसे विधमान रहनेवाले आतप, वायु, धूल, कार्मण कंत्र, जीवद्रव्य, कालाणु, आदि पदार्थ एक स्थानमें जब मध्याइत रूपसे रह जाता है तो द्रव्यमें सादास्य संबंधसे अनेक स्वभाव तोपरी प्रसनतासे रह जायेंगे | अत: मिन मिल स्वभावोंका एक द्रन्य विभिन्न अधिकरणपना दोष नहीं लगता है। तीसरा संशय दोष सप हो सकता था, यदि चलायमान प्रतिपति होती किंतु दोनों धर्म एक धर्मी में निर्णीत रूपसे जाने जारहे हैं तो संशय दोषका अक्सर कहां ! अमि जल पादिक अपने अनेक स्वमायों करके दाह, पाक, सेपन, विध्यापन आदि किमाएं कर रहे हैं वैसे ही सत्व आदि भी अपने योग्य अर्थ क्रियाओंको करते हैं। क्या संशयापन स्वभावोंसे कोई अर्थक्रिया होती है ! यानी नहीं । भाव और अमावसे समानाधिकरण्य रखता हुआ धर्मों के नियामक भवच्छेदकोंका परस्पर मिल बाना संकर है, सो अनेकांतमे नही सम्भव है। क्योंकि अस्तित्वका नियामक स्वचतुष्टय स्वरूप तो दूसरे नास्तित्व के नियामक धर्मसे एका एक नहीं हो जाता है। पांचवां दोष व्यतिकर भी यहां नहीं है। विषयोंका परस्सरमै बदलकर चले जानेको न्यतिकर कहते हैं। सो यहां टंकोत्कीर्ण न्यायसे उत्पाद, व्यय, भौव्य या अस्तिस्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यस्व आदि धर्म और उनके व्यवस्थापक स्वभाव सभी अपने मंच उपांशों ही प्रविष्ठित रहते हैं। परिवर्तन नहीं होता है। छठवां दोप अनवस्था भी बनेकांतम नहीं पाता है। सस् धर्ममें पुनः दूसरे सत् असत् माने जावें और उस सतमे फिर तीसरे सत् असत्