Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सस्वार्थचिन्तामणिः
न नित्यं नाप्यनित्यत्वं सर्वगत्वमसर्वगम् । नैकं नानेकमथवा स्वसंवेदनमेव तत् ॥ १३६ ॥ समस्तं तद्ववोन्यस्य तन्नाद्वैतं कथञ्चन । स्वेष्टेतव्यवस्थानप्रतिक्षेपाप्रसिद्धितः ॥ १३७ ॥
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पुनः बौद्ध कहते हैं कि संवेदन न तो नित्य है और उसे अनित्यत्व भी नहीं है, तथा as व्यापक भी नहीं है और अव्यापक भी नहीं है, अथवा वह एक भी नहीं है और न अमेक है । वह जो कुछ है सो स्वसंवेदन ही है। जो कुछ माप लोग इसके कहनेके लिये विशेषण देंगे, वह उन संपूर्ण चचनोंके वाच्यसे रहित ही है। जितने कुछ आप लोगोंके वचन हैं, वे सब कल्पित अन्य पदार्थों को कहते हैं। संवेदन तो अवाच्य है। आचार्य समझाते हैं कि वह बौद्धोंका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकार तो संवेदनाद्वैतकी सिद्धि कैसे भी नहीं हो सकेगी। कारण कि अपने इष्ट तत्त्वकी व्यवस्था करना और अनिष्ट पक्षका खण्डन करना ये दोनों तो शब्द के विना सकते हैं। ऐसी दशा में आपका सर्व प्रयास करना व्यर्थ जाता है।
स्वेष्टस्य संवेदनाद्वयस्य व्यवस्थानमनिष्टस्य भेदस्य पुरुषाद्वैतादेव प्रतिक्षेपो यतोऽस्य न कथञ्चनापि प्रसिध्यति, ततो नाद्वैतं तत्त्वं बंधहेत्वादिशून्यमास्थातुं युक्तंमनिष्टराच्यवत् ।
जिस कारण से कि इस संवेदनाद्वैतवादी बौद्धके यहां अपनेको इष्ट हो रहे संवेदनाद्वैतकी व्यवस्था करना और अपने अनिष्ट माने गये द्वैतका अथवा पुरुषाद्वैत, शहाद्वैत तथा चित्राद्वैतका खण्डन करना प्रमाणद्वारा कैसे भी नहीं सिद्ध होता है। इस कारण बौद्धोंसे माना गया अद्वैतरूपी तत्त्व विचारा, बंधके कारण, कार्य और मोक्षके कारण सम्यग्ज्ञान आदि स्वभावोंसे रहित होता हुआ कैसे भी युक्तियोंसे सहित सिद्ध नहीं हो सकता है । जैसे कि आपको सर्वथा अनिष्ट हो रहे तत्वों की आपके यहां प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं होती है । जिस दर्शनमें बंध, सम्यग्ज्ञान, I आदिकी व्यवस्था नहीं है, उसपर श्रद्धा नहीं करनी चाहिये । अतः एकसौ सत्रहवीं वार्तिके अनुसार नित्यपक्ष और क्षणिक पक्षमें आत्मा बंध, मोक्ष आदि अर्धक्रियाओंका हेतु नहीं हो पाता है, यह सिद्धांत युक्तियोंसे सिद्ध कर दिया गया है।
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नन्वनादिर विधेयं स्वेष्टेतरविभागकृत् ।
सत्येतरैव दुःपारा तामाश्रित्य परीक्षणा ॥ १३८ ॥ सर्वस्य तत्त्वनिर्णीतेः पूर्वं किं चान्यथा स्थितिः । एव प्रलाप एवास्य शून्योपप्लववादिवत् ॥ १३९ ॥