Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
म्भवात्, किमर्थं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्यादेः पर्यनुयोगवत् । संशयच तत्र कदाचित्कविनिर्णयपूर्वकः स्याण्वादिसंशयवत्। तत्र यस्य क्वचित्कदाचिददुष्टकारकसंदोहोत्पाद्यत्वादिना प्रमाणस्वनिर्णयो नास्त्येव तस्य कथं तत्पूर्वकः संशयः, तदभावे कुतः पर्यनुयोगाः प्रवर्तेरनिति न परपर्यनुयोगपराणि वृहस्पतेः सूत्राणि स्युः ।
उपलनवादी जन अंतरंग बहिरंग प्रमाण, प्रमेय, तत्त्वोंको माननेवाले जैन, मीमांसक, नैयायिक आदिके ऊपर उपाय उपेय सत्त्वोंका खण्डन करनेके लिये इस प्रकार कुबोध उठाते हैं कि अव्यभिचारी ( मिथ्याज्ञानसे भिन्न ) ज्ञानको आप लोग प्रमाण मानते हैं | अब आप जैन, नैयायिक, आदि बतलाइये कि ज्ञानका अव्यभिचारीपन कैसे निश्चय किया जाता है । क्या निर्दोष कारणों समुदायसे ज्ञान बनाया गया है, इस कारण प्रमाण है : या शांओसे रहित हैं, अतः मीमांसकोसे मानी गया ज्ञान प्रमाण है ! अथवा जिसको जाने, उसमें प्रवृद्धि करे और उसी
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मरूपी फलको प्राप्त करे या उस ज्ञानका सदस्यक दूसरा ज्ञान पैदा करके इस प्रवृत्तिकी सामर्थ्यले नैयायिक लोग ज्ञानमें प्रमाणता होते हैं ! बतलाओ । अथवा दूसरे प्रकारोंसे अविसंवादीपन आदिसे बौद्ध लोग ज्ञानमें प्रमाणता लाते हैं ? कहिये । आचार्य समझाते हैं कि उक्त ये सब उपप्लवादियों के पर्यनुयोग उठाना संशयपूर्वक ही हो सकते हैं। उस संशय के माने विना उक्त वह प्रश्नमालाका उठाना असम्भव है, जैसे कि यह क्या स्थाणु ( ठूंठ ) है या पुरुष है ! अथवा क्या यह लेजु है. या सर्प है ! आदि प्रश्नरूप चोब उठाना संशयको माने विना नहीं बनते हैं। जहां कहीं भी किसी पदार्थका अवलंन लेकर किसीको संशय होता है। उस पदार्थ में पहले कभी न कभी किसी स्वलपर निर्णय अवश्य कर लिया गया है, जिस मनुष्यने कहीं भी स्थाणु और पुरुषका तथा सांप और लेजुका ठीक ठीक पूर्वमें निश्चय कर लिया है । वही मनुष्य साधारण घर्मो का प्रत्यक्ष होनेपर और विशेष मोका प्रत्यक्ष न होनेपर किंतु विशेषधर्मो का स्मरण होनेपर मिध्याक्षयोपशमके वश होकर स्थाणु, पुरुषका मा लेजु, सांपका संशय कर बैठता है । उस प्रकरणमें यह कहना है कि जिसको, कहीं भी कभी संशय होगा उसे किसीका पहिले निर्णय अवश्य होना चाहिये, जब कि शून्यवादी किसी भी प्रमाण व्यक्तिमें निर्दोष कारणोंसे जन्यपन और बाधारहितपने आदि प्रमाणपनेका निर्णय ही नहीं मान रहा है तो उसे नैयायिक, मीमांसकों के प्रमाण तत्वमें संशय उठानेका For अधिकार है ? और पूर्वमें उस कुछ निर्णयको मानकर हुये संशयको उठा मी कैसे सकता है ! उसको तो यही कहते जाना चाहिये कि प्रमाण नहीं है। प्रमाण नहीं हैं। विशेष धर्मोंके द्वारा संचय उठाना सामान्य प्रमाणकी स्वीकृतिको और अपने को इट होरहे विशेष प्रमाणकी स्वीकृतिको अनुमित करा देता है । संशय करनेवालेको संदिग्ध विषयोंका कहीं कभी निर्णय करना आवश्यक है । तभी तो उन विशेषोंका अब संशय करते समय स्मरण होसकता है। अब निर्दोष चक्षुरादि कारणोंसे पैदा होनापन आदि किसी प्रमाणमै नहीं जाना गया तो उसका प्रश्न उठाकर संशय करना कैसे बन