Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 615
________________ तत्त्वाचिन्तामणिः ६०१ ... .. . स्वसंवेदनमपि न स्वेष्टं निर्णीत येन तस्य संवादकत्वासवतः प्रमाणत्वे तद्वदलिंगादिजनितवेदनस्य प्रमाणत्वसिद्धेनिश्चितादेव प्रमाणात सर्वत्र परीक्षण स्वेष्टेतरविभागाय विद्या प्रवर्तेत तत्त्वोपप्लववादिनः, परपर्यनुयोगमात्रपरत्वादिति कश्चित् । सोऽपि यस्किञ्चनभाषी, परपर्यनुयोगमात्रस्याप्ययोगात् । तथाहि पदार्थोंको सर्वथा नहीं मानना, विचारके पीछे पीछे सबको शून्य कहते जाना शून्यवाद है, और विचारसे पहिले व्यवहाररूपसे सत्य मानकर विचार होनेपर सर्व प्रमाण, ममेय पदार्थोंका न स्वीकार करना तत्त्वोपप्लववाद है। तत्त्वोपप्लव्यादीकी ओरसे कोई कहता है कि हम स्वसंवेदनको भी प्रमाणस्वरूपसे इष्ट होनेका निर्णय नहीं करते हैं और अद्वैतवादियोंके मूल स्वसंवेदनको मी नहीं मानते हैं, जिससे कि आप जन लोग हमको यह कह सके कि संवादकपनेसे उस स्वसंवदेनको जब वास्तविकरूपसे प्रमाणता मान लोगे तो उसीके समान इंद्रिय, हेतु और शब्दसे उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष, अनुमान और बागम ज्ञानोंको भी प्रमाणता सिद्ध हो ही जावेगी और निश्चित प्रमाणके द्वारा ही सब ही सलोंपर परीक्षा होकरके अपने इष्ट अनिष्ट तत्त्वोंके विमागके लिये सम्यग्ज्ञान ही प्रवगा । बंधुवर्य, यह तो आप जैनोंका कहना तब बनता, जब कि हम कोई एक भी तत्व मान लेते। किंतु हम तत्त्वोंका समूल चूल अमाव कहनेवाले उपप्लववादी एफ तत्त्वको भी इष्ट नहीं करते हैं। हम वितण्डावादी है। दूसरेके माने हुए सत्त्वों में चोथ उठाकर उनके खण्डन करनेमे ही हम तत्पर रहते हैं । स्वयं अपनी गांठका मत कुछ भी नहीं रखते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कोई उपलववादीका सहायक कह रहा है। किंतु वह मी जो कुछ यों ही अण्टसण्ट निस्वस्व पकवाद करनेकी रेव रखता है। क्योंकि प्रमाणका निर्णय किये बिना दूसरे वादियोंके तत्वोंपर खण्डन करनेके लिये केवल प्रश्नोंकी भरमार या आक्षेप उठाना भी तो नहीं बन सकेगा । इसी बातको आचार्ष महाराज स्पष्ट कर दिखलाते हैं -सुनिये और समझिये । यस्यापीष्टं न निर्णीतं कापि तस्य न संशयः।। तभावे न युज्यन्ते परंपर्यनुयुक्तयः ॥ १४४ ॥ जिसके यहां कोई भी इष्ट तत्त्व निर्णीत नहीं किया गया है, जिसको कहीं भी संशय करना नहीं बन सकता है । भूभवनमें उपजकर वही पाला गया मनुष्य तो ढूंठ या पुरुषका अथवा चांदी या सीपका संशय नहीं कर पाता है । और जब दूसरेके तत्त्वों में कटाक्ष करने के लिये वह संशय ही यदि न बनेगा तो दूसरे वादियों के ऊपर कुचोधोंका निरूपण करना भी तत्वोपप्लववादियों का न बन सकेगा, यह प्रतिपति ( खातिर ) भण्डार ( जमा ) रखो। कसमयभिचारित्वं वेदनस्य निधीयते ? किमदुष्टकारकसंदोहोत्याधत्वेन बाधारहि तत्वेन प्रवृत्तिसामर्थेनान्यथा वेति प्रमाणपत्वे पर्यनुयोगाः संशयपूर्वकालदमावे तदस

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