Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 614
________________ ६०८ तत्त्वार्य चिन्तामणिः कुछ न कुछ तत्र तो अभीष्ट है ही । इष्ट तत्वको माने विना खण्डन, मण्डन, किस उद्देश्यसे होगा । और शून्यवादी जब विचारसे पहिले तत्वोंका निर्णय न होना निश्चयसे जान रहा है तो यह निश्वम ज्ञान ही उसका माना हुआ तत्र कहना चाहिये । तत्त्वों का निर्णय भी तो उसको अभीष्ट है । तत्रेष्टं यस्य निर्णीतं प्रमाणं तस्य वस्तुतः । तदन्तरेण निर्णीतस्तत्रायोगादनिष्टवत् ॥ १४१ ॥ जिसके यहां कुछ भी इष्ट तत्त्वका निर्णय किया गया है, उसके यहां वास्तविक रूपसे कोई प्रमाण अवश्य माना गया है। क्योंकि उस प्रमाणके बिना वहां इष्ट पदार्थमें निश्चय करना ही नहीं बनता है | प्रमाणके विना अनिष्ट तत्वका निर्णय नहीं होता है। अतः प्रमाण मानना तो अनिवार्य हुआ । यो पांच अवयवाला अनुमान बना दिया गया है । 1 यथानिष्टे प्रमाणं वास्तवमन्तरेण निर्णीतिर्नोपपद्यते तथा स्वयमिष्टेऽपीति, तत्र निर्णीतिमनुमन्यमानेन तदनुमन्तव्यमेव । जैसे कि अपने को नहीं रुचते हुए पदार्थ में वास्तविक प्राणको माने विना अनिष्टपनेका निर्णय करना सिद्ध नहीं होता है, वैसे ही स्वयंको अभीष्ट होरहे पदार्थ में भी प्रमाण माने विना निर्णय नहीं होने पाता है । अब उस इष्ट अनिष्ट पदार्थमें निर्णय करनेको विचारपूर्वक स्वीकार करनेवाले अद्वैतवादियों करके वह प्रमाण तो अवश्य स्वीकार करलेना ही चाहिये । बौद्धोंने स्वसंवेदनको माना है। किंतु प्रमाण, प्रमेय, ग्राह्य, ग्राहक, स्वभावोंसे रहित स्वीकार किया है। ऐसे कोरे सम्वेदन से इष्ट, अनिष्ट पदार्थों का निर्णय नहीं हो सकता है । तत्स्वसंवेदनं तावद्यद्युपेयेत केनचित् । संवादकत्व तस्तद्वदक्षलिंगादिवेदनम् ॥ १४२ ॥ प्रमाणानिश्चितादेव सर्वनास्तु परीक्षणम् । स्वेतरविभागाय विद्या विद्योपगामिनाम् ॥ १४३ ॥ किसी उपायके द्वारा संवेदनका निर्णय करना यदि आप स्वीकार कर लेंगे और सफल प्रवृत्तिको करानेवाले सम्वादकपने से उस स्वसंवेदनको ही प्रमाण सिद्ध करेंगे, तब तो उसीके समान इंद्रियों जन्य प्रत्यक्ष ज्ञानको और हेतुसे अन्य अनुमान ज्ञानको तथा शब्दजन्य आगम ज्ञान दिको भी प्रमाण स्वीकार करलेना चाहिये। अतः निर्णीत किये हुए प्रमाणसे ही सब स्थानोंपर तत्वोंका परीक्षण हो । यो सम्यग्ज्ञानको स्वीकार करनेवाले वादियों के यहां प्रमाणरूप विद्या ही अपने इष्ट और अनिष्टपदार्थ के विभाग करने के लिये समर्थ होती है। अविधा विचारी स्वयं तुच्छ है । वह इटिका विभाग क्या करेगी ? तलवार्थों से उसी अविद्याका विभाग ( दूरीकरण हो जाता है । अर्थात् वह स्वयं विभक्त हो जाती है ।

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