Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 618
________________ वस्वार्यचिन्तामणिः Lalte शून्यवाद और उपलबवादमें भी किसी वादीका स्थिर रहना अनेकांतके बिना नहीं हो सकता है। क्योंकि किसी शून्यतत्त्वमे तो शून्परद्दिपना अपने आप स्वीकार करना ही पड़ेगा । अभ्यमा शून्यवादकी सिद्धि ही न हो सकेगी। तथा कहीं न कहीं उपप्लव ( विचार करनेपर प्रमेय, प्रमाण आदि तत्त्वोंका उड़ जाना ) तत्वमें तो नहीं उड़ जानापन मानना आवश्यक है । उपप्लवको उपप्लवरहित माननेपर ही इष्टसिद्धि हो सकेगी। अतः शून्यवादियोंके शून्यपनारूप तत्त्वमे शून्यता कभी भी नहीं मानी जा सकती है। वैसे ही तत्त्वोंका उपप्कत्र मानने पर भी उपप्लवका उपप्लव (प्रलय ) हो जाना नहीं माना जावेगा । अतः शून्यपन, अशून्यपन और उपप्लव, अनुपप्लव यों अनेकांतकी शरण लेना ही आप लोगोंको आवश्यक हुआ । शून्य अशून्यपनके समान घट, प्रमाण, प्रमेय, आदि अन्य पदार्थोंमें भी वह अशून्यपना है तथा उपप्लबमें अनुपप्लव के समान दूसरे प्रमाण, प्रमेय, आदि पदार्थ मी उपप्लवरहित हैं । ६१२ शून्यमपि हि स्वस्वभावेन यदि शून्यं तथा कथमशून्यवादो न भवेत् । न तस्याशून्यस्वेऽनेकान्तादेव शून्यवादप्रवृत्तिः, शन्यस्य निःस्वभावत्वात् । न मानाान्यता नापि परस्वभावेन शून्यता खरा विषाणादेरिव तस्य सर्वथा निर्णेतुमशक्तेः कुतोनेकान्तसिद्धिरिति चेत्, तर्हि तवोलवमात्रमेतदायातं शून्यतश्वस्याप्यप्रविष्ठानात् । न तदपि सिध्यत्यनेकान्तमन्तरेण तच्चोपलरमात्रेनुपप्लवसिध्देः । तत्राप्युपलचे कथमखिलं तथ्वमनुपप्लुतं न भवेत् १ शून्यवादका इष्ट तत्त्व होरहा शून्य भी यदि अपने स्वभाव करके अवश्य शून्य है, तब तो अशून्यवाद क्यों न हो जावेगा ? घटके शून्यपनेसे जैसे अघटपना छा जाता है, वैसे ही शून्यके भी शून्य हो जानेसे अशून्यपना आजावेगा अर्थात् सर्व ही प्रमाणोंसे निर्णीत किये गये पदार्थ सिद्ध हो जायेंगे | और यदि निषेधरूप उस शून्यको अशून्यपना मानोगे, तब शून्यवाद तो बन | किन्तु अशून्यपना मी आपके कहने से ही सिद्ध हो आवेगा । इस प्रकार अनेकान्सवाद से ही शून्यमतकी प्रवृत्ति हो सकेगी। यहां कोई शून्यवादी कहते हैं कि अशून्य करते हुए भी अनेकान्तसे शून्य होना हम नहीं मानते हैं। क्योंकि शून्यतत्त्व तो अखिल स्वभावोंसे रहित है। न तो उसको अपने भाव करके अशून्यपना है और न दूसरोंके स्वभावकरके शून्यपना है । जैसे कि गर्दभका सींग या संध्याका पुत्र आदि अपने आप शून्य हैं । स्वभावसे अस्थित्व और परभावसे नास्तित्व ये धर्म यहां नहीं हैं । सर्व प्रकार से रीते उस शून्यमे खरक्षिण आदिके समान शून्यपन और शून्यपन धोका निर्णय भी नहीं किया जा सकता है । उस कारण आप जैनोंके अनेकान्स मलकी सिद्धि हम शून्यवादियोंको क्यों माननी पडेगी । मात्रार्थ - इमलोग अनेकान्तको सिद्ध नहीं मानते हैं । ग्रन्थकार समझाते हैं कि ऐसा पूर्व पक्ष करनेपर तब तो यह केवल तत्त्वोंका उपप्लव करना ही प्राप्त हुआ । तुम्हारे अभीष्ट शून्यतत्वकी भी कण्ठोक्क विधिरूपसे प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। यदि आप यों कहें कि तत्वोपप्लवकी ही सिद्धि हुयी सही, हम दोनों भाई हैं, i

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