Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 610
________________ तस्वार्षचिन्तामणिः दृष्टान्तमें ग्राह्य आकारोंकी भ्रान्तपनेके साथ व्याप्तिको ग्रहणकर जागते हुए स्वस्थ अवस्थाफे ज्ञानाम भी प्रतीत होरहे ग्राह्यग्राहक अंशोको भ्रांतपना सिद्ध कर देते हैं। किन्तु हम कहते हैं कि स्वप्न आदि अवस्थाके ज्ञान परिणामामे पाये जारहे भिन्न भिन्न विच्छदका जानना भी तो भ्रमरूप है। यह नहीं कह सकते हो कि स्वप्नदशाके ज्ञान आकार तो भ्रमरूप होवे और उनके बीच बीचमै पडा हुभा विच्छेद होना फिर भ्रमरूप न होवे । ऐसा कहनेपर हो आप बौद्धोंको प्रतीतियोंसे विरोध होगा। अतः स्वप्नज्ञानके विच्छेदको भ्रमरूप निदर्शन करके परमार्थभूत संवेदनाद्वैतके परिणामोमें पड़े हुए विच्छेदका भ्रमपना सिद्ध होजावेगा, अर्थात् संवेदनाद्वैतके क्षणक्षणमें होनेवाले विशिष्ट परिणाम अनेक न बन सकेंगे। क्योंकि उन परिणामोंका अन्तरालवी विच्छेदन माना जावेगा तो संवेदनाद्वत नित्य हो जावेगा। तथा विशेषको ही एकान्तरूपसे माननेवाले बौद्धोको सामान्य माननेका भी प्रसंग आता है। तदुभयस्य भ्रान्तस्वसिद्धौ किमनिष्टमिति चेत् ।। बौद्ध कहते है कि ग्राह्य आकार और ज्ञानसम्बन्धी संतानियों के बीच बीचमें पड़ा हुआ विच्छेद वे दोनों ही यदि भ्रात सिद्ध होजायेंगे तो हमको क्या अनिष्ट प्राप्त होगा: निरंश संवेदनसे जितने झगडे दूर होजावे, वही अच्छा है । अर्थात् दोनोंको भ्रांत हो जानेदो ! हमको कोई भापति नहीं है। ऐसा बौद्धोंके कहनेपर आचार्य महाराज सुझाते हैं कि नित्यं सर्वगतं ब्रह्म निराकारमनंशकम् । कालदेशादिविच्छेदभ्रांतत्वेऽकलयदुद्वयम् ॥ १३४ ॥ द्वैत पदार्थोका निरूपण नहीं करता हुआ संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध यदि कालके मध्यवर्ती व्यवघापकोंका व्यवच्छेद होना, और भिन्न भिन्न देशोंका मध्यम पड़े हुए अंतरालरूप विच्छेदका होना या विशिष्ट आकारोंके स्थापन करने के लिये ज्ञानमें माने गये आकारोंके मध्यवर्ती विच्छेद होना, आदि हनको भ्रांतरूप कहेंगे तो वह संबेदनाद्वैत विचारा परमब्रह्मके समान नित्य, सर्वव्यापक, निराकार और निरंश बन जावेगा, जो कि आपको अनिष्ट है । अयवा संवेदनकी सिद्धि करते हुये ब्रह्माद्वैत सिद्ध हो जायेगा। कालविच्छेद, देशविच्छेद, आकारव्यवधान, अंशभेदका खण्डन कर देनेसे नित्य, व्यापक, निराकार निरंश ब्रह्म अवश्य सिद्ध हो जावेगा। कालविच्छेदस्य भ्रातत्वे नित्यं, देशविच्छेदस्य सर्वगतमाकारस्य निराकारमश । विच्छेदस्य निरंश, ब्रह्म सिद्धं चणिकाद्वैतं प्रतिक्षिपतीति कथमनिई सौगतस्य न स्यात् । यदि ज्ञानमें भिन्न समयके ज्ञान परिणामोंका व्यवधान करनेवाले कालविच्छेदको भ्रांत होना मानोगे तो आपका संवेदन नित्य हो जावेगा। क्योंकि कालका विच्छेद ही तो उसके क्षणिक अनित्यको बनाये हुए था। किंतु आपने उसको भ्रांत मान लिया, तब तो ज्ञान निस्य हो ही जावेगा। ऐसे ही

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