Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 611
________________ तस्वार्षकिम्वामणि ....... ... ... ... ... . .. .." """ "" "" "" - . ---- - भिन्न भिन्न देशोंकी विशेषताको करनेवाले देशविच्छेदको आप भ्रांत मानेंगे तो वह संवेदन सर्वव्यापक बन जावेगा। क्योंकि आकाशके एक एक मवेशमै पसा ज्ञानका एक एक परमाणु आपने एकदेशवृत्ति अध्यापक माना है। किंतु देशका अंतराल यदि टूट जावेगा तो बंधके टूट जानेपर तालाबके समान ज्ञान व्यापक हो जावेगा, जैसे कि महास्य वर्गणाएं जगतभरमें व्यापक है । इसी प्रकार आकारों के विशेषोंको धांसरूप मानलोगे तो संवेदन निराकार होजावेगा। किंतु आपने ज्ञानको साकार माना है । ज्ञानकी साकारता ही आपके मतमें प्रमाणताका प्राण है। तथा न्यारे न्यारे ज्ञान परमाणुओंके अंशाम पड़े हुए अंशविच्छेदोंको यदि भ्रांत कहोगे तो संवेदन निरंश होजावेगा। किंतु आपने ज्ञानोंको स्वकीय स्वकीय शुद्ध अंशोंसे सांश माना है । अतः विच्छेदोंके भ्रांतपने होजानेसे असवादियोंका मत सिद्ध हुआ जाता है। क्योंकि ब्रह्मवादी अपने श्रम तत्वको नित्य, व्यापक, निराकार और निरंश मानते हैं । अतः परममझकी सिद्धि होचाना ही आपके माने हुए क्षणिक संवेदनाद्वैतका खण्डन करदेती है । इस प्रकार बौद्धोंको क्यों नहीं अनिष्ट होगा ! । अर्थात् संवेदनाद्वैतको तो सिद्ध करने बैठे, किंतु उसके सर्वथा विपरीत ब्रह्माद्वैत सिद्ध होगया। यही तो वहा भारी अनिष्ट है। व्यर्थका गौरव आलापनेसे कोई कार्य नहीं चलता है। नित्यादिरूपसंवित्तरभावात्तदसम्भवे। .. परमार्थात्मतावित्तेरभावादेतदप्यसत् ॥ १३५ ॥ यदि शैद्ध यों कहै कि नित्य, व्यापक, निराकार और निरंश आदि स्वरूपयाले ऐसे परम. झाकी ज्ञप्ति नहीं होती है । अतः उस ब्रह्मतत्त्वका सिद्ध होना असम्भव है । ऐसा कहनेपर तो हम भी कहदेंगे कि परमार्थस्वरूप क्षणिक अद्वैत संवेदनकी ज्ञप्ति नहीं होरही है । अतः आपका यह संवेदनाद्वैत भी शशविषाणके समान असत् पदार्थ है यानी कुछ भी नहीं है। न हि नित्यत्वादिस्वभावे परमार्थात्मादिखभावे वा संवित्त्यभावं प्रति विशेषोऽस्ति, यतो ब्रह्मणोसत्यत्वे क्षणिकत्वे संवेदनाद्वैतस्यासत्यत्वं न सिञ्चेत् । जैसे आप कहते हैं कि नित्य, व्यापक होना आदि स्वभावयाले ब्रमकी ज्ञप्तिका कोई उपाय नहीं है, वैसे ही आपके परमार्थभूत, क्षणिक, साकार, परमाणुस्वरूप स्वांथ आदि स्वमाववाले संवेदनकी भी किसीको ज्ञप्ति नहीं होरही है । अतः दोनों महाशयोंके अभीष्ट होरहे परमभम और संवेदनमै समीचीन ज्ञप्ति न होने की अपेक्षासे कोई अंतर नहीं है। जिससे कि आप बौद्धके कथनानुसार प्रहातत्त्वका असत्यपना तो सिद्ध होजावे और क्षणिक होते हुए आपके माने हुए संवेदना • द्वैतकी असत्यक्षा सिद्ध न होवे। भावार्थ-हमारी दृष्टिसे दोनों भी असत्य हैं। जो तत्व प्रमाणोंसे नहीं जाना जाता है, उसके सत्वकी सिद्धि नहीं मानी जाती है।

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