Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्यापिन्ताममिः
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माने जावे यो करते करते आकांक्षा क्षय नहीं होते हुये अनवस्था हो सकती थी। किंतु ऐसा नहीं है । एक ही सत्पन सब धर्मों में और पूरे धीमें मोसमोत होकर व्याप रहा है। यदि किसी धर्म सत् असत्का पुनः न उठ बैठे तो दूसरी सप्तभती भी बनाली जाती है। दस, बीस बिज्ञासाओं के पीछे आकांक्षा शांत हो जावेगी। काम करनेवाली अनवस्थाको गुण मान लिया गया है। सातवा दोष अमविपति है। किसी भी धर्मका ठीक ठीक निर्णय न होनेसे सामान्य जन द्विविधामें पर जाते हैं और पदार्थको नहीं जान पाते हैं। यह अमतिपत्ति है। किंतु अनेक धर्माका वस्तुमे पशु पक्षियों तकको ज्ञान हो रहा है । फिर अप्रतिपति कैसी: । आठवां दोष अभाव है। जिसका ज्ञान नहीं हुआ, उसका बडी सरलतासे और मीठेपनसे निवेष कर देना ही अभाव है। किंतु अनेक स्वभावोंका और पदायाँका प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे ज्ञान हो रहा है । अतः सस्म अनेकांसका अभाव नहीं कह सकते हो। इस प्रकार संक्षेपसे आठ दोषोंका वारण किया गया है। हमको एकांत कादियोंकी बुद्धिपर बड़ा आश्चर्य होता है। कारण कि सर्वत्र फैले हुए प्रसिद्ध अनेकांतका वे अपकाप कराई है। कोई अनेकांसको छल कहता है। कोई पागजाल बतलाता है।
और कोई संशयवाद आदि । अब विचारिये कि एक ही देवदत्त किसीका पुत्र, किसीका पिता, किसीका मामा और किसीका भानजा आदि धर्मीको धारण कररहा है। वादीके द्वारा मोका गया हेतु अपने पक्षका साधक है और प्रतिपक्षीके पक्षका बाधक है । पक्ष या सपक्षमै सबेतु रहता है और वही विपक्षमें नहीं रहता है। आदि अनेक दृष्टांत अनेकांतसे मरे पड़े हुए हैं। व्यवहारकी सत्यताको लेकर बिज्ञासाके अनुरूप पभके वशसे एक वस्तु विशेषरहित अनेक धर्मोक न्यास करनेको सप्तमी कहते हैं । सत्त्व, नित्यत्व, एकल मेद, वक्तव्यस्थ, लधुत्व, अल्पख आदि अनेक धोकी सप्तमंगियां होजाती हैं। जैसे कि वन्यकी अपेक्षासे रूपगुण नित्य है (१)। पर्यायकी अपेक्षा अनित्व है (२) कमसे कहनेपर रूपगुण नित्यानित्य है (३) एक ही समय में एक साथ दोनों धर्मोको कह नहीं सकते हैं, क्योंकि स्वाभाविक योग्यताके वश वृद्धव्यवहार के द्वारा संकेताहणपूर्वक बोला गया शब्द एक समयमें एक ही अर्भको कह सकता है। इंद्र मी वस्तुके स्वभावोंका परिवर्तन नहीं करा सकता है। अत: अवक्तव्य है (५)। नित्य होफर भी अवक्तव्य है (५)। अनित्य अंशोंसे परिपूर्ण होता हुआ भी रूपगुण अवक्तव्य है (६)। नित्य अनित्यपन दोनोंसे घिरा हुआ भी अवकम्य है (७)। इस प्रकार विवक्षा होनेपर सातभंग हो जाते हैं । ससमझीके कस्पित धर्म व्यावहारिक सत्य हैं। इनमें छह हानियां और वृदियां नहीं होती है। इन कस्सित धमों के अतिरिक्त अनुजीवी प्रतिजीवी गुण तथा अर्थपर्याय व्यवनपर्याय और अविभाग प्रतिच्छेद उत्पाद, व्यय, धौम्प ये समी धर्म भनेकातों में गर्मित है । यहाँपर अन्त माने स्वभावका है। सभी वस्तुओं के गुण पर्याय आदि स्वभाव हैं। जो गुण हैं, वे स्वभाव अवश्य है । किंतु जो स्वभाव है, वे गुण होवे नहीं भी हो। तहां अनुजीवी गुण तो प्रतिक्षण परिणमन करते हैं। अनुजीवी गुणोंकी पर्यायोंके अविभाग प्रतिच्छेदों में एक समय