Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 607
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६०१ स्वरूप, (दृष्टांत ) इस अनुमान से ब्रह्माद्वैलकी और संपूर्ण पदार्थ ( पक्ष ) क्षणिक विज्ञान संबेदनरूप हैं ( साध्य ) क्योंकि वे अपने आप जाने जारहे हैं या प्रकाश रहे हैं ( हेतु ) जैसे कि सुख सम्वेदन, (उदाहरण) इस अनुमान से संवेदनाद्वैतकी सिद्धि करनेपर, साध्य और हेतुकी अपेक्षासे द्वैतपनेका प्रसंग हो ही जाता है । तथा " एकमेवाद्वयं ब्रह्म दो नाना " सर्व मयं " एक आत्मा सर्वभूतेषु गूढः " " ब्रह्मणि निष्णातः " " परमाणि लयं श्रजेत् ” आदि वेदवाक्य या आगमवाक्योंसे अद्वैतकी सिद्धि करनेपर भी वाच्यवाचकपने करके द्वैतका प्रसंग होता है । + 66 न च स्वतः स्थितिस्तस्य ग्राह्यग्राहकतेक्षणात् । सर्वदा नापि तद्भान्तिः सत्यसंवित्त्यसम्भवात् ॥ १२९ ॥ I तथा उस संवेदनाद्वैत की अपने आप सिद्धि होजाती है, यह बौद्धों का कहना ठीक नहीं है क्योंकि जगत् सदा ग्राह्यग्राहकभाव देखा जा रहा है । ज्ञान माइक पदार्थ है। उससे जानने योग्य पदार्थ ग्राह्य है। यों तो द्वैत ही हुआ। उस ग्राह्यग्राहक भावपने के द्वारा जानना भ्रांतिरूप है, यह मी नहीं मानना चाहिये। क्योंकि माह्मग्राहकके विना तो सत्यममितिका होना ही असम्भव 2 ज्ञानका सत्यपना दो ठीक विषयको करनेसे ही वर्णन है। I न सम्वेदनाद्वैतं प्रत्यक्षान्तरादनुमानाद्वा स्थाप्यते स्वतस्तस्य स्थितेरिति न साधीयः सर्वथा प्राह्मग्राहकाकाराक्रान्तस्य सम्वेदनस्यानुभवनात् स्वरूपस्य स्वतो गतेरिति वक्तुमशक्ते, संविदि प्राह्मग्राहकाकारस्यानुभवनं भ्रान्तमिति न वाच्यं वद्रहितस्य सत्यस्य संविक्यभावात् सर्वदावभासमानस्य सर्वत्र सर्वेषां भ्रान्तत्वायोगात् । बौद्ध कहते हैं कि हम अपने संवेदन के अद्वैतको अन्य प्रत्यक्षोंसे अथवा अनुमान प्रमाणोंसे या आगम वाक्योंसे स्थापित नहीं करते हैं । किंतु उस शुद्ध अद्वैत की तो अपने आपसे ही स्थिति होरही है। आचार्य समझाते है कि इस प्रकार कहना बहुत अच्छा नहीं है । क्योंकि सदा ही ग्राह्य आकार और ग्राहकाकारोंसे वेष्ठित हुए ही संवेदनका सब जीवोंको अनुभव होरहा है । अतः ब्राह्म माइक अंशोंसे रहित माने गये संवेदन के स्वरूपकी अपनेसे ही शति होजाती है, यह कभी नहीं कह सकते हो । दीपक और सूर्य में स्वयं अपना ही प्रकाश करनेपर प्रकाश्यत्व और प्रकाशकत्व ये दोनों धर्म विद्यमान हैं। तभी तो प्रकाशनक्रिया होसकी है। यदि बौद्ध यह कहें कि ज्ञानमे माह्य आकार और ग्राहक आकारके अनुभव करनेकी मनुष्योंको भ्रांति होरही है । समीचीन ज्ञान होनेपर के आकार कपूर की तरह उड जाते हैं और शुद्धज्ञान रह जाता है। यह तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये। क्योंकि उन ग्राह्य मादक अंशोंसे रहित होकर समीचीन ममाणकी ज्ञप्ति ही नहीं हो सकती है। जैसे कि कोई अच्छा व्यापारिक स्थान प्राप्य और ग्राहकोंसे रीता नहीं है । कोई दर्शन या अमध्यवसाय के समान बालुकामय प्रदेश भले ही माह्य माइकोंसे रिक्त (खाली) हो, किंतु 76

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