Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 603
________________ सस्था चिन्तामणिः ५९. म सत्योऽनेकान्तवादः प्रतीसिसद्भावेऽपि तस्य विरोधवैयधिकरण्यादिदोषोपद्रुतस्वादिति नानुमन्तव्यम्, सर्वथैकान्त एव विरोधादिदोषावताराद, सत्येनानेकान्तवादेन विना रन्धादिहेतूनां कचिदसिद्धः । जैनोंके द्वारा माना हुआ अनेकांतवाद थयार्थ नहीं है। क्योंकि कतिपय प्रतीसियों के होते सन्ते भी वह अनेकांत अनेक विरोध, वैयधिकरण्य, संशय, सकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ बोपोंसे मसित होरहा है । आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार एकांतवावियोंको नितांत नहीं मानना चाहिये। क्योंकि सर्वथा एकांतपक्षमें ही विरोध आदि दोषोंका अवतार होता है। सर्व ही पदार्थ अनेक धर्मों से युक्त प्रत्यक्षसे ही आने जारहे हैं। वहां दोषोंका सम्भव नहीं है । भावार्थ-स्वदम्य, क्षेत्र, काल, भावसे पदार्थ सत् है, परन्तुष्टयसे असत् है । यदि एक ही अपेक्षास सत् असत् दोनों होते तो विरोध दोषोंकी संभावना थी। जो देवदत्त यज्ञदत्तका शत्रु है, वही जिनदत्तका मित्र भी है। देखो, जो धर्म किसीकी अपेक्षासे एक धर्मी में नहीं प्रतीत होते हैं, उनका विरोध मानाजाना है। जैसे ज्ञानका और रूपका या सर्वज्ञता और अस्पज्ञताका विरोध है। किंतु जो दीख रहे हैं, यदि उनका विरोध माना जावेगा तो पदार्थों का अपने स्वरूपसे ही विरोध हो जावेगा। सहानवस्थान, परस्परपरिहारस्थिति, वध्यघातकभावरूपसे विरोध तीन प्रकारका है। एक स्थानपर एक समय जो नहीं रह सकते हैं, उनका सहानवस्थान विरोध है । जैसे कि शीतस्पर्श और उष्णसर्शका या सह्य पर्वत और बिन्ध्यपर्वतका। किंतु सत्व और असत्त्व दोनों एक स्थानपर देखे जाते हैं। यहां विरोध कैसा है। दूसरा विरोध तो पुरलमै रूप और रस गुण एक दूसरेसे कथञ्चित् पृथक् भूत होते हुए अपने अपने परिणामोंसे ठहरे हुए हैं। अत: परस्परपरिहार स्थिति लक्षण है। विशेष तो एक धर्मी में विद्यमान होरहे ही अनेक धर्मोंका होसकता है। जैसे कि बदनमें दो आंखोका, या हायम अंगुलियोंका । अत: यह विरोध भी अनेकांतका बिगाड करनेवाला नहीं है। . तीसरा वध्यघातकमाव विशेष भी नौला और सप तथा गौ और व्याघ्रमें देखा जाता है। किंतु ऋद्विधारी मुनिमहाराज या भगवान्के समवसरणमें जातिविरोधी जीव बड़े प्रेमसे एक स्थानपर बैठे रहते हैं । अब भी पशुशिक्षक लोग सिंह और गायको एक स्थानपर बैठा हुआ बतला देते हैं। किंतु अंसर इतना है कि मुनियों के निकट विरोधी जीरों में अत्यंत मित्रता हो जाती है। गौके पनोंको सिंहशिशु पीता है और सिंहिनीके दूधको बछडा चोखता है। जिन पदार्थोंको लोगोंने विरोष कल्पित कर रखा है, उनमें भी कुछमें तो सत्य है। किंतु बहुभागों में असत्य है। अमि दाहको करती है। किंतु दाहको शांत भी करती है । अमिसे मुरसे हुए को बल सींचनेसे हानि होती है और अमिसे सेक करनेपर लाभ होता है । विषकी चिकित्सा विष है, यानी एक विषकी गर्मीको दूसरे प्रतिपक्षी विपकी गर्मी चाट जाती है। उष्णज्वरके दूर करने के लिए उष्ण प्रकृतिवाली मौषधियां सफल होती है। एवं एवं जल भी कहीं अनिका कार्य कर देता है । जमाये हुए

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