Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 595
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः स्यान्यतं, स्वकाले सति कारणे कार्यस्य स्वसमये प्रादुर्भावोऽन्वयो असति वामवनं व्यतिरेको न पुनः कारणकाले तस्य भवनमन्वयो ऽन्यदात्वभवनं व्यतिरेकः । सर्वथाप्यभिन्नदेशयोः कार्यकारणभावोपगमे कुतोऽभिधूमादीनां कार्यकारणभावो १ भिन्नदेशतयोपलम्भात् । भिन्नदेशयोस्तु कार्यकारणभावे भिनकालयोः स कथं प्रतिशिष्यते येनाresuतिरेको वा न स्थाताम् । ५८९ सम्भवतः बौद्धोंका यह मत भी होवे कि अन्वयव्यतिरेक मानके लिये कार्य और कारणका समानदेश तथा समानकाल होनेका कोई नियम नहीं है। कारणका अपने कालमें रहना होनेपर कार्यका अपने उचित कालमें प्रकट होजाना तो अन्वय है और अपने कालमें कारण न होनेपर कार्यका स्वकीय कालमें नहीं पैदा होना ही व्यतिरेक है । किन्तु फिर कारणके समय उस कार्यका होना यह अन्यय नहीं है तथा जिस समय कारण नहीं है, उस समय कार्य भी नहीं उपज रहा है, वह व्यतिरेक माव भी नहीं है। इसी प्रकार कारणके देशमें कार्यका होना और जिस देशमें कारण नहीं है, वहां कार्य न होना, यह अभिनदेशता भी कार्य - कारणभावमै उपयोगी नहीं है । सर्वही प्रकारसे अमिनदेशवालोंका यदि कार्यकारणभाव स्वीकार किया जावेगा तो आगे और घूम तथा कुलाल और घटका कार्यकारणभाव कैसे हो सकेगा ! क्योंकि अभि तो चूल्हे में है और धुपंकी पंक्ति गृहके ऊपर दीखती है। ऐसे ही कुलाल और ach देशमें मी एक हाथका अन्तर है। यो मिस्र मित्र देशों में वर्तरहे पदार्थों में कार्यकारणभाव दीखरहा है । कहीं कहीं तो कार्यकारणभावमें असंख्य योजनोंका अन्तर पडजाना आप जैनोंने भी माना है । दूरवर्ती सूर्य कमलों को विकसित करता है। कहां भगवान्‌का जन्म और कहां देवोंके स्थानों में सिंहनाद घण्टा बजना तथा नारकियों को भी थोडी देरतक दुःखवेदन न होना । एवं यहां बैठे हुए जीवोंका पुण्यपाप न जाने कहां कहां अनेक पदार्थों में परिणाम करा रहा है । इस कारण मिन्न देशपने से भी कार्यकारणभाव देखा जाता है । इस प्रकार भिन्न भिन्न देशवाले पदार्थोंका मी यदि कार्यकारणभाव स्वीकार किया जावेगा तो भिन्न भिन्न कालवाले पदार्थों का कार्यकारणभाव होना आप जैन कैसे खण्डित करते हैं। जिससे कि क्षणिक माने गये भिन्न कारूवाले पदार्थों में वैसे अभ्वय व्यतिरेक न बने । भावार्थ — भिन्न कालवालों के भी अन्वय व्यतिरेक बननेमें कोई क्षति नहीं है। कारणत्वेनानभिमतेऽप्यर्थे स्वकाले सति कस्यचित्स्वकाले भवनमसति वाऽभवनमन्वयो व्यतिरेकच स्थादित्यपि न मन्तव्यमन्यत्र समानत्वात् । कारणत्वेनानभिमतेर्थे स्वदेशे सुति सर्वस्य स्वदेशे भवनमन्वयो असति वाऽभवनं व्यतिरेक इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । स्वयोग्यताविशेषात्कयोभिदेवार्थं योर्मित्र देशयोरन्वयव्यतिरेकनियमात्कार्यकारणनियमपरिकल्पनायां भिन्नकालयोरपि स किं न भवेत्तत एव सर्वथा विशेषाभावात् । . Ma

Loading...

Page Navigation
1 ... 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642