Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वा चिन्तामणिः
-----------..........
............
.............----
-
और सर्वथा नित्य माने गये पदार्थका कार्यके साथ व्यतिरेक भी नहीं बन सकता है। क्योंकि सर्वदा रहनेवाले कारणका " जब कारण नहीं है तब कार्य नहीं है। ऐसा वह व्यतिरेक बनना सम्भव नहीं है । यदि आप यों कहे कि नित्य पदाओंका कालव्यतिरेक न सही, किन्तु देशव्यतिरेक तो भले प्रकार बन जावेगा अर्थात् जिस देशमें नित्य कारण नहीं है, उस देशम उसका कार्य भी उत्पन्न नहीं होपाता है, यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि वास्तवमें विचारा जाये तो काल व्यतिरेकको ही व्यतिरेकपना है। उस देशव्यतिरेकको व्यतिरेकपनेकरके नियम करना नहीं हो सकता है। कुलाल या दण्ड जिस देशमें रहते हैं, उसी देशमें घट उत्पन्न नहीं होता है। कोरिया जहां बैठा है, उसी स्थानपर कपडा नहीं बुना जारहा है। दूसरी बात यह है कि आपके मतानुसार माने गये आत्मा, आकाश आदि ज्यापक द्वन्मोका देशव्यतिरेक बनता भी नहीं है। यदि अन्यापक द्रव्योंका देशव्यतिरेक बनाओगे तो प्रकरणमें पड़े हुए कार्यदेश विरक्षाको प्राप्त हुए किसी भन्यापक नित्य द्रव्यका जैसे देशव्यतिरेक बनाया जा रहा है, वैसे ही विवक्षा नहीं पड़े हुए दूसरे अव्यापक नित्य पदार्थका भी देशव्यतिरेक सिद्ध हो जावेगा । भावार्य-जैसे पार्थिव परमागुमोके न रहनेसे घट नहीं बनता है वैसे यों भी कह सकते हैं कि जलीय परमाणु या मनके न रहनेसे घट नहीं बना है। इसका नियम कौन करेगा कि घटका पृथ्वी परमाणुओंके साथ देशव्यतिरेक है, जलीवपरमाणु, तेजसपरमाणु, मन, आदिके साथ नहीं है । जो पदार्थ वहां कार्यदेशमें नहीं है उन सबका अमाव वहां एकसा पड़ा हुआ है। तैसा होनेपर मी किसी एक विवक्षित नित्य कारणके साथ ही प्रकृत कार्यका मनमाना अन्वयव्यतिरेकभाव सिद्ध करोगे तो सर्व ही नित्य पदार्थोके साथ भन्वयव्यतिरेक भावकी सिद्धि हो जानेका प्रसंग होगा। कहों जी ! ऐसी दशामें कौन किस कारणका कार्य हो सकेगा ! अव्यवस्था हो जावेगी । उस कार्यके कारणों का निर्णय न हो सकेगा।
ततोऽचलात्मनोन्वयव्यतिरेको निवर्तमानौ स्वव्याप्यां कार्यकारणता निवर्तयता तदुक्तं-- अन्वयष्यतिरेकाधो यस्य दृष्टोनुववेकः, स भावस्तस्य तद्धतुरतो भिन्नान सम्भवः" इति, न चायं न्यायस्तत्र सम्भवतीति नित्ये यदि कार्यकारणताप्रतिक्षेपस्तदा क्षणिकेपि तदसम्भवस्याविशेषात् ।
उस कारणसे सिद्ध होता है कि कूटस्थ नित्य आमासे. अन्वयव्यतिरेक दोनों निवृत्त होने हुए अपने व्याप्य होरहे कार्यकारणभावको भी निवृत्त कर देते हैं। सो ही इस प्रकार अन्यत्र कहा है कि जो कार्य जिस कारणका अवयव्यतिरेक रूपसे अनुसरण करता हुआ देखा गया है, वह पदार्थ उस कार्यका उस रूपसे कारण हो जाता है । इस कारण जो सर्वथा भिन्न है अर्थात् अपने कतिपय स्वभावोसे कार्यरूप परिणत या सहायक नहीं होता है, उस कारणसे उस कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। किंतु यह अन्वयन्यतिरेकरूप न्याय वहां सर्वथा निस्यमें नहीं सम्भवता है। इस कारण यदि कूट सनिश्यमें कार्यकारणभावका पौद्ध लोग खण्डन करते हैं, तो उनके एकात रूपसे