Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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वयाचन्ामणिः
और क्षणिक पदार्थको उसका कारण कह लो ! इसके अतिरिक्त वास्तविक कार्यकारणभाव कोई पदार्थ नहीं है । असत् पदार्थकी उत्पत्ति होजाना ही क्रिया, कारक के लौकिक, व्यवहारको धारण करती है, इस प्रकार कहनेवाला बौद्ध उन सांख्योंके माने गये " सर्व व्यापारोंसे रहित कूटस्थ आत्मामें भी सर्व प्रकारोंसे विद्यमान रहनारूप मूर्ति ही क्रियाकारकव्यवहारका अनुसरण करती है " इस सांख्य सिद्धांत का कैसे खण्डन कर सकेगा? बताओ तो सही । भावार्थ - भाप दोनों ही मुख्यरूप से तो कार्यकारणभाव मानते नहीं है । केवल व्यवहारसे असत् की उत्पत्ति और सत्का विद्यमान रहना रूप मूर्तिको पकडे हुए हैं। ऐसी दशा में कल्पित किये गये कार्यकारणभावसे आप दोनोंके यहां पंघ, मोक्ष आदि व्यवस्था नहीं बन सकती है।
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अन्वयव्यतिरेकाद्यो यस्य दृष्टोनुवर्तकः ।
स तद्धेतुरिति न्यायस्तदेकान्ते न सम्भवी ॥ १२५ ॥
जो कार्य जिस कारण के अन्वयव्यतिरेकभावसे अनुकूल आचरण करता हुआ देखा गया है, कार्य उस कारण जन्य है । इस प्रकार प्रमाणोंके द्वारा परीक्षित किया गया न्याययुक्त कार्यकारणभाव उनके एकांतपक्षों में नहीं सम्भव है। क्योंकि को परिणामी और कालांतरस्थायी होगा, वही अन्वयव्यतिरेकको धारण कर सकता है । कूटस्थ नित्य या क्षणिक पदार्थ नहीं ।
नित्यैकान्ते नास्ति कार्यकारणभावोऽन्वयव्यतिरेकाभावात् न हि कस्यचिमित्यस्य सद्भावोऽन्वयः सर्वनित्यान्चयप्रसंगात् । प्रकृतनित्यसद्भाव इव तदन्यनित्य सद्भावेऽपि भावात्, सर्वथा विशेषाभावात् ।
पदार्थों के नित्यस्वका एकांत इठ मान लेनेपर कार्यकारणभाव नहीं बनता है। क्योंकि कार्यकारणभावका व्यापक अन्वयव्यतिरेक वहां नहीं है । व्यापकके अभाव व्याप्य नहीं ठहर सकता है । कार्यके होते समय किसी भी एक नियकारणका वहां विद्यमान रहना ही अन्वय नहीं है। यों तो सभी नित्य पदार्थों के साथ उस कार्यका अन्वय बन बैठेगा। ज्ञान कार्यके होनेपर जैसे आत्मा नित्य कारणका पहिलेसे विद्यमान रहना है, वैसे ही आकाश, परमाणु, काल, व्यादिका भी सद्भाव है अतः प्रकरणमै पढे हुए नित्य आत्माके सद्भाव होनेपर जैसे ज्ञानका होना माना जाता है वैसे ही उस आत्मासे अन्य माने गये आकाश आदि नित्य पदार्थों के होनेपर भी ज्ञान कार्यका होना माना जावे । आकाश, काल आदिले भात्मारूप कारणमें सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है ।
नापि व्यतिरेकः शाश्वतस्य तदसम्भवात् । देशव्यतिरेकः सम्भवतीति चेत्, न, तस्य व्यतिरेकत्वेन नियममितुमशक्तेः । प्रकृतदेशे विवक्षितासर्वगतनित्यव्यतिरेकवद विवक्षिता सर्व गत नित्यव्यतिरेकस्यापि सिद्धेः तथापि कस्यचिदन्वयव्यतिरेकसिद्धी सर्वनित्यान्वयव्यतिरेक सिद्धिप्रसंगात्, किं कस्य कार्य स्थात् १