Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 590
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः धर्मधर्मिरूपतयानुपलभ्यं स्वरूपेणोपलभ्यं वस्त्विति चेत्, यथोपलभ्यं तथा सत् यथा चानुपलभ्यं तथा तदसदिति । तदेवं सदसदात्मकत्वं सुदूरमप्यनुसृत्य वस्य प्रतिक्षेतुमशक्तेः । ततः सदसत्वस्वभाव पारमार्थिको कचिदिच्छताऽनन्तस्वभावाः प्रतीयमानास्तथात्मनोभ्युपगन्तव्याः । ५८४ बौद्ध कहते हैं कि धर्म और धर्मी तथा कार्य और कारण एवं आधार आधेय इत्यादि स्वभाव करके वस्तु नहीं देखी जाती है। देखने योग्य भी नहीं है। हां 1 अपने स्वलक्षण स्वरूपसे सो वह वस्तु जानने योग्य है ही । अतः जैनोंका दिया दोष हमारे ऊपर लागू नहीं होता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा करेंगे तब तो बलात्कार से उनको अनेकांतकी शरण लेनी पडी । क्योंकि जिस स्वरूप करके जिस ढंगसे वस्तु उपलभ्य है, उस प्रकार से वह सतरूप है और जिन परकीय स्वभाव करके वस्तु नहीं जानी जा रही हैं, उन प्रकारोंसे वह असतुरूप है । इस प्रकार दोनों बातें सिद्ध हो गयी । इस कारण बहुत दूर भी जाकर बिलम्ब से आप बौद्धोंको इस प्रकार स्याद्वादका अनुसरण करना पडा । उस वस्तुके सदात्मक और असदात्मकपनाका आप खण्डन नहीं कर सकते हैं। इस कारणसे किसी भी स्वलक्षण या ज्ञानमै सत् और असत् स्वभावको वस्तुभूत मानना चाहते हो हो आत्माके उसी प्रकार प्रमाणोंसे मले प्रकार जाने जा रहे अनन्त स्वभाव भी वस्तु भूख स्वीकार कर लेने चाहिए । विना स्वभाव के वस्तु ठहर ही नहीं सकती है । वस्तुत्व भी तो एक स्वभाव ही है। वैसे ही आत्मा के आत्मत्व, ज्ञान, इच्छा, कोष, अस्तित्व, अवाच्यत्स्त्र, ज्ञेयत्व, बद्धत्व, मुक्तत्व, कर्तृत्व, भोक्तापन, बालत्व, कुमारत्व आदि अनंत स्वभाव हैं । तेषां च क्रमतो विनाशोत्पादौ तस्यैवेति सिद्धं ध्यात्मकत्वमात्मनो गुणासम्बन्धेवररूपाभ्यां नाशोत्पादव्यवस्थानादात्मत्वेन धौव्यत्वसिद्धेः । ↓ तथा आमा प्रतिक्षण अनेक स्वभावका उत्पाद होता है और अनेक स्वभावोंका नाश होता रहता है । उन स्वभावका क्रमसे उत्पाद और विनाश होना उस आत्माका हीं किसी अपेक्षासे उत्पाद विनाश होजाना है। क्योंकि वे स्वभाव आत्मासे कथञ्चित् अभिन्न है । इस कारण उत्पाद व्यय, धौव्य, ये तीन आस्माके तदात्मक धर्म सिद्ध हो जाते हैं । पहिले प्रकरणका संकोच करते हैं कि आत्मामें सम्यग्दर्शन आदि गुणों के उत्पन्न हो जानेपर पहिली गुणोंसे असम्बन्धित अवस्थाका नाश हुआ तथा नवीन गुणोंके संबंधीपने इस दूसरे स्वरूपसे आत्माका उत्पाद हुआ और चैतन्मस्वरूप आत्मापने करके ध्रुवपना सिद्ध है । यही आत्मामें त्रिलक्षणपना व्यवस्थित हो रहा है । ततोपि विभ्यता नात्मनो भिनेन गुणेन सम्बन्धीभिमन्तव्यो न चासंबद्धस्तस्यैव गुणो व्यवस्थापयितुं शक्यो, यतः " सम्बन्धादिति हेतुः स्यादि "ति सूक्तं निश्यैकाने नात्मा हि धमोक्षादिकार्यस्य कारणमित्यनवस्थानात् ।

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