Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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लापिन्तामणिः
सारूम और बौद्धोंके एकान्सपल का विचार करके मा शिपिकोंके निल आमाका विचार करते हैं कि आत्मासे सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ गुण उस आत्माका नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि उस गुणके साथ भास्माका सप काल में समन्ध नहीं है । जैसे कि कालपरमाणु सा रूपगुणका कभी सम्बन्ध नहीं है । अतः कालपरमाणुका रूपगुण नहीं माना जाता है। यदि आप वैशेषिक ज्ञान आदि गुणों के साथ उस आत्माका कभी कभी समवाय सम्बन्ध होना मानोगे, ता तो उस आस्माके एकान्तरूपसे नित्यपनेकी क्षति हो जावेगी। कारण कि पहिलेके गुणोंसे नहीं सम्बन्ध रखनेवाले स्वरूपसे आत्माका नाश हुआ और गुणसमवायी स्वभावसे आसाका प्रादुर्भाव हुभा तथा चैतन्य, भामस्व, द्रव्यत्व आदि घाँसे आत्मद्रव्यकी स्थिति रही। इस हेतुसे आत्माका उत्पाद, व्यय और प्रौव्य इन तीन स्वभावोसे तात्मकपना सिद्ध हुआ। एकान्त रूपसे आत्माको निस्यता न रही। एक बात यह भी है वैशेषिकोंने सववायको नित्य सम्बन्ध मान रखा है। मतः कवाचित् सम्बन्ध माननेकी बात कच्ची है। __. नापरिणाम्यात्मा तस्येच्छाद्वेषादिपरिणामेनात्यन्सभिन्नेन परिणामित्वात् । धर्माधर्मोत्पत्याख्या बन्धसमवायिकारणत्वोपपत्तेरिति न मन्तव्यं, स्वतोऽत्यन्तभिन्न परिणामेन कस्यचित्परिणामित्वासम्भवाद, अन्यथा रूपादिपरिणामेनास्माकाशादेः परिणामिखप्रसंगात् । ततोऽपरिणाम्येवात्मेति न बन्धादेः समवायिकारणम् ।
वैशेषिक कहते हैं कि कापिलोंके समान हमारा भामा सर्वथा अपरिणामी नहीं है। परिणाम जिसमें रहते हैं, उसको परिणामी कहते हैं । इच्छा, द्वेष, मुख, ज्ञान आदि चौदह गुणरूप सर्वथा मिन्न होरहे परिणामों करके वह आत्मा परिणामी है । और पुण्य पापकी उत्पत्ति है नाम जिसका ऐसे बन्धका समवापी कारणपना भी आत्माके युक्तियोंसे सिद्ध हो जाता है। अतः कापिलों के ऊपर दिये गये दूषणोंका हमारे मतमें प्रसंग नहीं है । अन्धकार कहते है कि यह वैशोषिकों को नहीं मानना चाहिये। क्योंकि अपनेसे सर्वथा भिन्न माने गये परिणामों करके किसी भी द्रव्यको परिणामी पना नहीं सम्भवसा है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार मानोगे अर्थात् सर्वथा भिन्न परिणामसे भी चाहे किसीको परिणामी कह दोगे, तब तो रूप, रस आदि परिणामोंसे पुद्गलके समान आत्मा, आकाश, काल, मन इन द्रव्योको भी परिणामी होजानेका प्रसंग आता है। यानी सर्वथा मिल ज्ञानका परिणामी पुद्गल और रूपका परिणामी आकाश हो जायगा। जैसे सस्वामिसम्बन्ध विना सर्व प्रकार भिन्न रुपयोंसे यदि कोई धनवान् बनजाये तो कोई भिखारी कोषके रुपयोंसे लक्षाधिपति बन जावेगा । इस कारणसे सिद्ध हुआ कि आत्मा भिन्न माने गये परिणामोंसे परिणामी नहीं है। अतः वह बन्ध और बन्धके कारण मिथ्याज्ञानका तथा मोक्ष और मोक्षके कारण सत्वज्ञानका उपादान कारण नहीं हो सकता है।