Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्यार्थचिन्तामणिः
- कदाचिन्नश्वरस्वभावाधिकरणं कदाचिदुत्पित्सुधर्माधिकरणमात्मा नित्यैकांवरूप इति ब्रुवभ स्वस्था, कादाचित्कानेकधर्माश्रयत्वस्यानित्यत्वात् ।
जो नैयायिक आत्माको कभी तो नाश होनेवाले गुण, स्वभावोंका अधिकरण मानता है और कभी उत्पन्न होनेवाल बर्माका अधिकरण स्वीकार करता है, फिर भी उस आत्माको एकांतरूपसे कूटस्थ निस्य कई ही जाता है । इस प्रकार बोलनेवाले वैशेषिक, सांख्य या नैयायिक मालूम पडते हैं कि वे आपमें नहीं है । जो जन बातकोप या ग्रहावेशसे ग्रसित है, वह उन्मत्र ही युक्ति रहित पूर्वापरविरुद्ध बातोंको कहा करता है। प्रकृत आत्मामें कभी कभी उत्पन्न और नष्ट होनेवाले अनेक धोका आश्रयपन है । अनित्य आधेयोंके आधारसे अभिन्न भी अनित्य है तथा कमी कमी होनेवाला अधिकरणपन तो आत्मासे अभिन्न है। इस हेतुसे भी आत्मा अनित्य सिद्ध होता है। जैसे कि हरे रूप और खट्टे रसको धारण करनेवाला आम्र फल पीछे पीला रूप और मीठे रसका आधार होनेसे अनित्य माना जाता है।
नानाधर्माश्रयत्वस्य गौणत्वादात्मनः सदा । स्थास्नुतेति न साधीयः सत्यासत्यात्मताभिदः ॥ १२२ ॥
नित्य आत्मवादी कहते हैं कि आगे पीछेके नष्ट, पैदा होनेवाले अनेक धर्मोका अधिकरणपना आमाका आरोपित गौण धर्म है । फटे कुर्ताके उतारनेसे और नये कुताके पहिननेसे देवदत्त नहीं बदल जाता है । एक रुपया चला गया, दूसरा रुपया आगया, एतावता जिनदत्त विपरिणाम नहीं होजाता है । अतः अपनेसे भिन्न होरहे धर्माकी अधिकरणता आत्मामें एक कल्पना किया गया -गौण धर्म है, बहिर्भूत गौणधर्मसे आत्मा अनित्य नहीं बन जाता है । अतः सर्वदा आमाको स्थितिस्वभाववाला ही हम कहते हैं । हम उन्मत्त नहीं है । ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार कहना बहुत अच्छा नहीं है। क्योंकि सर्वदा स्थित रहनेवाले आत्मत्व, महापरिमाण, अजसंयोग, आदि धोको आप मुख्यरूप करके आत्मामें सत्यरूपसे विद्यमान मानते हैं और घटज्ञान, रजतकी इच्छा आदिकी अधिकरणतारूप धर्मोको गौण रूपसे मानते हुए वास्तवमें असत्य मानते हैं। फिर भी सत्य और असत्य स्वरूपपने करके आत्माका भेद सिद्ध होता है । अतः आमा अनित्य सिद्ध हुआ।
सत्यासत्यस्वभावस्वाभ्यामात्मनो भेदः सम्भवतीत्ययुक्तं, विरुद्धधर्माच्यासलक्षणत्वावेदस्थान्यथारमानात्मनोरपि भेदाभावप्रसंगात् ।
यदि बास्माको नित्य माननेवाले फिर भी यों कहेंगे कि सत्य स्वभाव होने और असत्यस्वमाव हो जानेसे आत्माका भेद है यानी वे सत्य और असत्य स्वमाव भी आत्मासे मिस है। 78