Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्त्या चिन्तामणिः
एतेनास्मनो भिन्नो गुणः सत्त्वरजस्तमोरूपो बधादिहेतुरित्येतत्प्रतिघ्यूई, तेन तस्य शश्वदसम्बन्धेन तद्धेतुत्वानुपपचेः । कदाचित्सम्बन्धे त्र्यात्मकत्वसिद्धरविशेषात् ।
इस पूर्वोक्त वैशेषिकके मतका स्वण्डन कर देनेसे सांख्योंके इस सिद्धांतका मी निरास हो जाना है कि आत्मासे सर्वथा भिन्न मानी गयी प्रकृतिके सत्व गुण, रजोगुण, और तमोगुणरूप माव आत्माके बंध तथा मोक्ष आदिके कारण हैं । सांख्योंने उन सत्वरजस्तमो गुणोंका उस आत्माके साथ सदासे ही संबंध होना नहीं इष्ट किया है। पुरुषको जलकमलपत्रक समान सर्वथा निर्लेप माना है। पेखी दशामें वे मित्न पडे हुए गुण विचारे आकाशके समान आत्माके उस पंध, मोक्ष, होनेमें कारण नहीं सिद्ध हो सकते हैं। यदि किसी समय तीन गुणोंका आत्मासे संबंध होना मान लोगे तो तीन स्वभावपना आत्मा विना अन्तरके सिद्ध हो जावेगा । भावार्थ-स्याद्वादिओंके सिद्धांत अनुसार उत्पाद, व्यय, प्रौव्यसे सीन स्वरूपपना जैसे आत्माम सिद्ध होगा, वैसे ही तीनपनेको धारण करते हुए सत्वरजस्तमके स्वरूप मी बन जावेंगे । तभी षंघ, मोक्ष, आदि व्यवस्था हो सकेगी। अन्यथा कोई उपाय आपके पास नहीं है।
यद्विनश्यति तद्रूपं प्रार्दुभवति तत्र यत् । तदेवानित्यमात्मा तु तद्भिन्नो नित्य इत्यपि ॥ १२० ॥ न युक्तं नश्वरोत्पित्सुरूपाधिकरणात्मना । कादाचित्कत्वतस्तस्य नित्यत्वकान्तहानितः ॥ १२१ ॥
यहां नित्य आत्मावादी कहते हैं कि उस आत्मामें ओ गुण या धर्म उत्पन्न होता है, वही अनिस्य है। आस्मा तो उन गुण और स्वभावोंसे सर्वथा भिन्न है। अतः उसका पालाममात्र मी न्यून, अधिक, नहीं होने पाता है । इस कारण आत्मा अक्षुण्णरूपसे कूटस्थ नित्य बना रहता है ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार प्रतिवादियोंका कहना मी युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि नाश स्वभाव और उत्पत्ति स्वभाववाले गुण या धोके आधार स्वरूपपने करके उस आमाको मी कमी कभी होनापन है । मतः आपके मसमें उस आस्माके नित्यताके एकांतपक्षकी हानि हो जाती है। भावार्थ-भले ही आला पटकी इच्छा नष्ट हो और. पटकी उत्पन हो अथवा रजसका ज्ञान नष्ट होवे और सुवर्णका ज्ञान होवे, किंतु ऐसी दशामें भी जो आत्मा पहिले समयमें घटकी इच्छा
और रजतके शानका अधिकरण था, दूसरे समयमें आत्मा उस अधिकरणपन स्वभावसे नष्ट हो जाता है तथा पटकी इच्छा और सुवर्ण ज्ञानके अधिकरण स्वभावसे नवीन उत्पन्न हो जाता है। मतः आत्मा भी कवञ्चित् उत्पाद विनाशोंसे सहित है। अन्यथा जैसे पूर्व था वैसा ही मना रहना चाहिये । कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिये था । रोगीसे नीरोग होना, मूर्खसे पण्डित बन आना, ये सब क्या है।