Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 587
________________ ५८१ तत्त्वाचिन्तामणिः नहीं हैं। यह व्यवस्था नहीं होती । भावार्थ- आत्मा न मुख्यस्वभाव हैं और उपचरित स्वभाव ही हैं । किंतु आत्मा सम्पूर्णस्वभावोंसे रहित होकर निःस्त्रभावरूप है । कूटस्थ नित्य है कथञ्चिद्भेदाभेदपक्षेऽपि स्वभावानामात्मनोऽनवस्थानं तस्य निवारयितुमशक्तेः । परमार्थतः कस्यचिदेकस्य नानास्वमावस्य मेचकज्ञानस्य ग्रायाकारवेदनस्य वा सामान्यविशेषादेव प्रमाणबला व्यवस्थानात्तेन व्यभिचारा सम्भवादिति । T t अभीतक कूटस्थ आत्मवादी ही कह रहे हैं कि जैन लोग आत्मा के साथ उसके अनेक स्वभा वोका कथञ्चित् भेद और कथञ्चिद अभेद पक्षको यदि स्वीकार करेंगे तो भी अनेक स्वभावका आत्मामें अवस्थान नहीं हो सकेगा। क्योंकि भेद पक्षके अंश अन्य स्वभावोंकी कल्पना करते करते अनवस्थान हो जायेगा | जैन लोग उसका वारण नहीं कर सकते हैं। दूसरी बात यह हैं कि अनेकान्त पक्ष संशय, विरोध, वैयधिकरण्य, सक्कर व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपति, और अभाव ये आठ दोष आते हैं। अतः एक आत्मा के अनेक स्वभावोंकी व्यवस्था करना अनेकान्त मटमें अशक्य है । यदि जैन लोग दूसरे दार्शनिकोंके स्वीकृत तत्वोंको दृष्टान्त मानकर अपने कथञ्चित् भेद, अभेदकी पुष्टि करेंगे, सो भी न हो सकेगी। क्योंकि हम सांख्य उन दृष्टान्तोंकी प्रमाणों के द्वारा व्यवस्थिति होना नहीं मानते हैं। चित्राद्वैतवादी बौद्धोंने नीलाकार, पीताकार, हरिसाकार आदिक अनेक आकारोंवाला एक चित्रज्ञान माना है। वह एक होकर अनेक स्वभाववाला है। किन्तु इसकी प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं कर सके हैं। क्योंकि उनका अशक्यविवेचनस्व हेतु त्वामास है इसका विचार आप जैनोने ही पहिले प्रकरण में कर दिया है। तथा एक ज्ञानमें ग्राह्य अंश ग्राहक. अंश और संवित्ति अंश ये तीन अंश मानना भी प्रमाणसिद्ध नहीं हैं । एवं नैयायिकोंने व्यापक सता जातिको परसामान्य माना है और पृथिवीस्व, घटत्व आदिको विशेषरूप से व्याप्य अपरसामान्य कहा है। किन्तु मध्यवर्ती द्रव्य, गुणत्वको सामान्यका विशेष माना है । घटत्व, पटत्वको विशेष ( व्याप्य ) सामान्य कहा जावे तो द्रव्यत्र व्यापक सामान्यके और घटत्व, पटत्व विशेष सामान्य के मंझले पृथिवीत्व, जलव आदिको भी सामन्यका विशेष माना है। भावार्थ---द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि जैसे सामान्य होकर भी विशेषरूप हैं, वैसे ही कथञ्चित् भेदाभेदको हम जैन मानलेते हैं। सो यह मी दृष्टान्त प्रामाणिक नहीं है । क्योंकि जातियोंके पक्ष में नैयायियोंका मन्तव्य वैसा ही निर्बल है । ऐसे ही सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणस्वरूप एक प्रकृतितत्त्व या नर्तकी आदि दृष्टान्तसे मी तुम्हारे अनकांतकी सिद्धि नहीं होसकती है । अतः एक आत्मा के नाना स्वमावले रहित सिद्ध करनेके लिये दिये गये हमारे मुख्यरूपसे एकत्व हेतुका उन अनेक स्वभावरूप एक मेचकज्ञान ( चित्रज्ञान ) आदिसे व्याभिचार होना कैसे भी नहीं सम्भव है । इस प्रकार यहांतक कूटस्थ आत्मवादी कहचुके, अब आचार्य महाराज कहते हैं कि -

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