Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 578
________________ सत्यार्थचिन्तामणिः क्रम, यौगपद्य, व्याप्य हैं। पूर्व स्वभावका त्याग करना और उत्तर कालवर्ती स्वभावका ग्रहण करता तथा स्थूलपर्याय या नही परिणामका नियत लक्षण है । बौद्धों का माना गया केवळ पूर्वक्षणवर्ती स्वभावका अन्ययसहित नाश हो जाना और उत्तर समयवर्ती सर्वथा नवीन ही पर्यायों की उत्पत्ति होना परिणाम नहीं है । अथवा सांख्योंका माना गया केवल तीनों कालमे स्थित रहना ही परिणाम नहीं है। क्योंकि प्रामाणिक परीक्षकोंको बौद्ध और कापिलों के मंतव्यानुसार प्रतीति नहीं हो रही है। किंतु वह हमारा माना हुआ तीन लक्षणवाला परिणाम ही कम और योगपका व्यापक हो करके मली रीतिसे जाना जा रहा है । घट, पट, दाल, शाक आदि बहिरंग पदार्थों में और आमा, ज्ञान, सुख आदिक अंतरंग पदार्थोंमें तीन लक्षणवाला ही परिणाम बाघक प्रमाणोंसे रहित होकर जाना जा रहा है । वह परिणाम होना वस्तुके विवर्तरूप स्वभावोंपर अवलम्बित है | अतः अवास्तविक नहीं है, जिससे कि सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मान लिये गये कल्पित पदार्थ से वह व्यापक परिणाम स्वयं निवृत्त होता हुआ अपने व्याप्य क्रम और यौगपद्यकी निवृत्ति न कर लेवे। भावार्थ — व्यापक परिणामके न रहनेपर सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक आस्मा में व्याप्यस्वरूप क्रमिक माव और युगपत् मात्र भी नहीं रहते हैं और जब एकांत पक्षों में क्रम तथा यौगपद्य निवृत हो जाते हैं तो वे निवृत्त होते हुए सामान्यरूपसे अर्थक्रियाको मी निवृत्त करा देते हैं। क्योंकि उन क्रम और यौगपद्यसे वह सामान्य अर्थक्रिया होना व्याप्त है । व्यापक निवृत्त हो आनेसे व्याप्य भी निवृत्त हो जाता है। जहां मनुष्य नहीं, वहां ब्राह्मण कहांसे आया ! | और अनेक स्वभावसे विवर्च करनारूप चमत्कारोंसे रहित जिस कूटस्थ या क्षणिक आत्मा सामान्य रूप से अर्थक्रिया करना ही नहीं सम्भवता है तो उस अपरिणामी आत्मामें बंधना, छूटना, बंधका कारण मिथ्याज्ञानरूप हो जाना और मोक्षका कारण तत्वज्ञानरूप हो जाना आदि विशेष अर्थक्रियाएं भला कैसे सम्भवित हो सकती हैं? जिससे कि यह आत्मा उन बंब आदिकोका समवायिकारण बन सके | यदि आप सांख्य या नैयायिक पूर्व अतिशयोंको न छोडनेवाले और उत्तर में अनेक चमत्कारोंको न धारण करनेवाले कूटस्थ नित्य आत्माको भी बंध, मोक्ष आदिका उपादानकारण मानेंगे तो बौद्धोंके माने गये अन्वयरहित क्षण क्षण में नष्ट होनेवाले निरन्वय क्षणिक विज्ञानरूप आत्माको भी बन्ध, मोक्ष, आदिका उपादान कारणपना हो जानेका प्रसंग आवेगा, जो किं आप लोगोंको अनिष्ट पडेगा। क्योंकि नित्य आत्मवादी तो बौद्धोंका सामिमान खंडन करते हैं । न चात्मनो गुणो भिन्नस्तदसम्बन्धतः सदा । तत्सम्बन्धे कदाचित्तु तस्य नैकान्तनित्यता ॥ ११८ ॥ गुणासम्बन्धरूपेण नाशद्गुणयुतात्मना । * प्रादुर्भावाच्चिदादित्वस्थानाल्यात्मत्वसिद्धितः ॥ ११९ ॥ १७२

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