Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
रूप से प्रतिभास होनेवालोंका भी प्रत्यक्ष न मानोगे तो तिस ही कारण आत्माके समान नील कम्मल, घट, पट आदिका भी प्रत्यक्ष होना मत मानो । न्याय्य मार्ग समान होना चाहिये ।
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नीलादिः प्रत्यक्षः साक्षात् क्रियमाणत्वादिति चेत्, तत एवात्मा प्रत्यक्षोऽस्तु ।
नील, घट, पट, आदि बहिर पदार्थ तो प्रत्यक्ष के विषय हैं क्योंकि उनका विशदरूपसे प्रतिमान किया जाता है। यदि ऐसा करेंगे तो तिस ही कारण आत्माका भी प्रत्यक्ष होना मान लो | क्योंकि आत्माका भी विशदरूपसे प्रतिभास किया जा रहा ही है।
कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वान्न प्रत्यक्ष इति चेत् व्याहतमेतत्, साक्षात्प्रतीयमानत्वं हि विषयीक्रियमाणत्वम्, विषयत्वमेव च कर्मत्वम्, तचात्मन्यस्ति कथमन्यथा प्रतीयमानवास्य स्यात् ।
प्रति उपसर्गपूर्वक इण् धातुसे कर्ममै यक् विकरण कर कृदन्तमै शानच् प्रत्यय करके प्रतीयमान शब्द प्रगट होता है । प्रतीति क्रियाके घट, पट, आविक कर्म है। अतः प्रतीयमान होनेके कारण वे प्रत्यक्ष हैं | इस प्रकरणमें विषविज्ञानका प्रत्यक्षस्त्र धर्म इन घट पट आदि विषयोंमें उपचार से आरोपित कर दिया गया है । प्रतिवादी कहता है कि कर्मपनेसे आत्मा कभी प्रतीत नहीं होता है इस कारण प्रत्यक्ष नहीं है। मंथकार कहते हैं कि यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तो ऐसा कहने में व्याघातदोष आता है । जैसे कोई पुरुष अपनेको वन्ध्याका पुत्र कहे या चिल्लानेवाला अपनेको मौनव्रती कहे | उसीके सह यहां वदतो व्याघात दोष हैं । पहिले मीमांसकोंने कहा था कि आत्मा कर्ता रूप से प्रतीत हो रहा है इस ही से आत्मा प्रतीतिका कर्म बन जाता है । फिर कर्मपा निषेध कैसे कर सकते हैं जो प्रत्यक्ष से प्रतीयमान है, वह प्रत्यक्ष प्रमाणसे अवश्य विषय किया जा रहा है । इप्तिका विषयपन ही कर्मपना है और वह आत्मामें विद्यमान है । यदि यह बात न मानकर अन्य प्रकार मानी जावेगी तो इस आत्माका प्रतीतिद्वारा विषय करना भला कैसे हो सकेगा ? आप मीमांसक स्वयं सोचो तो सही ।
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नात्मा प्रतीयते स्वयं किंतु प्रत्येति सर्वदा न ततो प्रतीयमानत्वात्तस्य कर्मत्वासिद्धिरसिद्धता साधनस्येति चेत्, सर्वथाऽप्रतीयमानत्वमसिद्धं कथञ्चिद्वा ? न तावत्सवैथा, परेणापि प्रतीयमानत्वाभावप्रसंगात् । कथञ्चित्पक्षे तु नासिद्धं साधनम्, तथैवोपन्यासात् ।
मीमांसक कहते हैं कि आला प्रतीत नहीं होता है किंतु सर्वदा प्रतीतिको करता है, यों कर्ता है, उस कारण से प्रतीतिका कर्म बनाकर कह देनेसे आत्मा को कर्मपनेकी सिद्धि नहीं हो सकती है। अत: जैनोंका प्रतीयमानत्व हेतु असिद्ध हो गया यानी आत्मारूपी पक्ष नहीं रहा । आचार्य कहते हैं कि यदि मोमांसक ऐसा करेंगे तो हम पूंछते हैं कि आमाको सर्वथा किसी भी प्रकार से प्रतीय