Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्धोंके समान वैशेषिक भी प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं । किंतु वे हेतुके कितने ही भेद मान लेते हैं, उन न्यारे वैशेषिकों का कहना है कि आकारभेदका अंकमाला स्वभाव न सही और कार्य भी भले ही न होये । फिर भी उसके साथ अविनामाव संबंध होनेके कारण वह अंकमाला वहां आकार भेदमें ज्ञापक हेतु हो जाती है, उन वैशेषिकों के भी इस मन्तव्यपर हम पूंछते हैं कि यहां अविनामावरून व्याप्तिका ग्रहण किस प्रमाणसे होता है। बतलाइये ! प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो व्यासिका ग्रह। हो नहीं सकता है। क्योंकि भविष्य और चिर भूतकालमें होनेवाले प्रहणोंके आकारोंका भेद हम सरीखे चम्चक्षुवाले पुरुषों आदिके प्रत्यक्षका विषय नहीं है। अतः साध्य और हेतु दोनों के प्रत्यक्ष किये हिना कोनन का पवित नाम मानन्धको हम जान नहीं सकते हैं। और अनुमानसे भी च्याप्तिका ग्रहण हो नहीं सकता है। क्योंकि अनुमानका उत्थान व्याप्तिग्रणपूर्वक होगा। उस व्याप्तिको जानने के लिये भी तीसरे अनुमानकी आवश्यकता पडेगी । अतः यह भी चौथे व्यातिमहणसे उत्पन्न होगा। इस प्रकार आकांक्षाएं बढते रहने के कारण अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। अब आप काणादोंके पास ज्याप्तिग्रणका और कोई उपाय नहीं है।
नैयायिक, सांख्य और मीमांसकोंके बलपर आगमकी प्रमाणताका अनुसरण कर आगमसे व्याप्तिका ग्रहण करना इष्ट करोगे, तब तो हम पूंछते हैं कि युक्तियोंकी कृपासे युक्त हो रहे आगमसे व्याप्तिको जान लोगे ? या युक्तियोंके कृपाभारसे रहित भी आगमसे सम्बन्धका ग्रहण कर लोगे ? बताओ । इन दोनोंमेसे पहिला पक्ष तो अच्छा नहीं है। क्योंकि अत्यंत परोक्ष विषयको प्रतिपादन करनेवाले उस आगममें युक्तियों की प्रवृति नहीं होती है । मंत्र, तंत्र, सामुद्रिक, ज्योतिष विषयके शास्त्रोंमें वे युक्तियां प्रवृत्त नहीं होती हैं । जब कि अग्निकी उष्णता, आरमाकी चेतनताको विषय करनेवाले प्रत्यक्षों में ही युक्ति चलाना पहाइसे माथा टकरामेके समान प्रत्यक्षकी अवज्ञाका कारण होकर व्यर्थ है तो मला आगमसे जानने योग्य कर्म, परमाणु, आकाश, सूर्यग्रहण, बीजाक्षरोंकी शक्ति आदि विषयों में भी युक्तियों का प्रवेश कहां? अर्थात् नहीं है।
__दूसरा पक्षग्रहण करनेपर हम आपसे पूंछते हैं कि उस आगमका प्रमाणपना स्वतः सिद्ध है ! या दूसरे कारणोंसे जाना गया है । बताइथे । मीमांसकोंके अनुसार पहिला स्वतः प्रमाणीकपना तो इन नहीं सकता है। क्योंकि जो विषय हमको स्वयं अभ्यास किये हुए नहीं हैं, उन अत्यन्तपरोक्ष माने गये पुण्य, पाप स्वर्ग आदिके प्रतिपादन करनेमें वेद स्मृति, पुराण आदि ग्रंथों को स्वतः प्रमाणीकपन सिद्ध नहीं है । अन्यथा प्रमाणताके समान अपमाणताकी भी स्वतः सिद्धि हो जानेका प्रसंग आवेगा । ज्ञान प्रामाण्यको जो स्वतः अपने आप होना मानते हैं उनको ज्ञानमें अप्रामाण्यका उत्साद भी स्वतः ही मानलेना पड़ेगा। तथा च वे व्याप्तिमइण करानेवाले शाम अपमाण हो जायेंगे ।