Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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বাৰিবালিঃ
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५५ वस्तु सिद्ध हो जाती है। हां । विरुद्ध कतिपय धोका आधारमूत एक वस्तु परमार्थरूपसे सिद्ध न होगी। जो धर्म एक धर्मी में कभी किसी के द्वारा नहीं देखे जाते हैं, इस अनुपलम्भ प्रमाणसे सभी स्थानोम विरोधकी सिद्धि की जाती है। यदि ऐसा न मानोगे अर्वात दुसरे प्रकारसे कहोगे कि जिन धोका एक वस्तुम साथ साथ उपलम्भ हो रहा है, उनका भी परस्पर विशेष माना जावेगा, सब तो स्वभाववाली वस्तुका अपने स्वमावके साथ भी विरोध होनेका प्रसंग भाजावेगा । तथा च अमिका उष्णसाके साथ और आत्माका ज्ञान के साथ भी विरोध ठन जावेगा, जो कि किसीको इष्ट नहीं है । तिस कारणसे अबतक सिद्ध होता है कि विरुद्ध गुणवाले गुणी द्रव्य जैसे भिन्न भिन्न होते हैं वैसे ही एक द्रन्यके गुण और पर्याय मी अनेक विरुद्ध स्वमावोंसे युक्त होते हुए मिम हैं । अतः विरुद्ध धर्मोका अधिकरणव हेतु व्यभिचारी नहीं है,दर्शन भाविकोंके भेदको सिद्धकर ही देवेगा।
नन्वेवमुत्तरस्यापि लाभे पूर्वस्य भाज्यता । प्रासा ततो न तेषां स्यात्सह निर्वाणहेतुता ॥ ६८ ॥
यहां शंका है कि जैसे पूर्वकथित दर्शन गुणके होजानपर भी ज्ञान और चारित्रके होजानेका कोई नियम नहीं है और दर्शन, ज्ञानके होजानेपर भी चारित्र होने का नियम नहीं है। इसी प्रकार उत्तरवर्ती गुणके लाभ होजानेपर भी तो पूर्वगुणकी भाज्यता प्राप्त होती है। क्योंकि जब वे तीनों गुण स्वतंत्र हैं, उनके स्वभाव एक दूसरेसे विरुद्ध हैं, ऐसी दशा सम्भव है कि उत्तरवर्ती गुण होवे और पूर्वका गुण न होवे। देखा भी जाता है कि किसी जीवके भनेक वर्षोंसे सम्यमान है, किंतु उस जीवके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं है । एवं क्षायिक चारित्र भी होजाता है। फिर भी बारहवे गुणस्थानमें केवलज्ञान नहीं है । अतः उस भाज्यताके कारण उक्त तीनों गुणोंको साथ रइकर मोक्षका मार्गपना प्राप्त नहीं होता है । जो विरुद्ध धर्मोके आधार हैं, वे मिलकर भी एक कार्यमें अमि और जनके समान मला सहायक मी कैसे होंगे।
नहि पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरमुरारस्य तु लामे नियतः पूर्वलाम इति युक्तम्, तविरुद्धधर्माध्यासस्याविशेषाद, उत्तरस्यापि कामे पूर्वस्य भाज्यताप्राप्तेरित्यस्याभिमननम् ।
आक्षेपकार कहता है कि पूर्व गुणके प्राप्त हो जानेपर आगेका गुण भजनीय है और उत्तरवर्ती गुणके लाभ हो जानेपर तो पूर्वगुणका लाभ होना नियमसे बद्ध है, यह बेनोंका कहना युक्तिसहित नहीं है। क्योंकि वह विरुद्ध धर्मोसे आरूढ हो जाना तीनों गुणों में अन्तर रहित विद्यमान है । उत्तर गुणके लाभ हो जानेपर भी पहिले गुणको विकल्पसे रहनापन प्राप्त है। अर्थात् किसी ठाकुर के यहां हाथी रहनेपर घोडा होवे ही यह नियम नहीं, जब कि हाथी और घोडा अपनी स्वतंत्रताके साथ न्यारे न्यारे भी रहसकते हैं। किसी प्रभुके केवल झयी है और किसीके यहां अकेला घोडा है। भले ही किसी के दोनों भी होवे । ग्रंथकार कहते हैं कि इस