Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वाचिन्तामणिः .
पहिलेके उस ज्ञानचारित्र-रहितपने स्वभाव करके नाश हुआ और इन ज्ञान दर्शनसे सहितपनेकरके दर्शनकी उत्तरपर्यायरूप क्षायिकसम्यक्त्वका उत्पाद हुआ तथा दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआपन स्थित रहा, ऐसी दशामें सम्यक्त्वकी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप त्रिलक्षणता हो जाती ही है । उसी प्रकार मुक्ति के कारण माने गये क्षायिकसम्यक्त्व और पूर्णज्ञान इन दोनों हेतुओंको तीसरे हेतु चारित्रकी आकांक्षा है। अतः चारित्रगुण उत्पन्न होनेके अनंतर उत्तरवर्ती कालमै पहिले चारित्ररहित स्वरूपसे दर्शन और ज्ञानका नाश हुआ और पूर्णचारित्र सहितपनेसे सम्यक्त्व और ज्ञानका उत्पाद हुआ तथा मोहनीय और ज्ञानावरण कर्मके क्षयसे जन्यपना स्वभाव स्थिर रहा। इस प्रकार तेरहवें गुणस्थानके आदि समय सम्बन्धी सम्यक्त्व और ज्ञान गुणों में भी विलक्षणता आगयी। एवंच मुक्ति के कारण क्षायिक दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। इन तीनों को मी अन्य दो हेतुओंकी अपेक्षा है। उनमें पहिला तो तीन अघातिकतेकी निर्जरा करनेवाला अपरिस्पन्द-क्रियारूप आत्माका विशेष परिणाम व्युपरकियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्ल ध्यान है, जो कि चारित्ररूप है और दूसरा सहायक इन काले, कामे, आयक्षेत्र, आयुष्य कर्मका झर जाना, आदिका समुदाय विशेष है । संहरणकी अपेक्षा अन्यकाल अन्य क्षेत्रोंसे भी मोक्ष होती है। अतः चौदहवें गुणस्थानमें उपान्त्य समयके क्षायिकसम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र इन तीनोंका परिणमन चौथे शुक्लध्यान और काल आदि विशेषोंसे रहित था। किंतु चौदहवे गुणस्थानके अंत चतुर्थ शुक्लध्यान और काल आदि विशेषसे रहितपने स्वभाव करके नाश हुआ और रलत्रयका उत्तरवर्ती क्रियाविशेष और काल आदि विशेषसहितपनेसे उत्पाद हुआ क्या दर्शनमोहनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोहनीयके क्षयसे जन्यपने करके स्थिति रही। अतः उस क्षायिकरनोंकी विलक्षणताका भी इस उक्त कथनके द्वारा व्याख्यान कर दिया गया है । इस प्रकार क्षायिक भाव भी उत्पाद, व्यय, प्रौव्य इन तीन लक्षणोंसे सहित होकर सद्रूप सिद्ध हो चुका । सिद्ध भगवानों में भी समयकी उपाधि अनुसार और जेयोंकी परिणतिकी अपेक्षासे अगुरुलघु गुण द्वारा त्रिलक्षणता सर्वदा विद्यमान है।
ननु तस्य हेत्वन्तरेणोन्मुक्तताहेत्वन्तरस्य प्रागभाव एव, तेन युक्तता तदुस्साद एव, न चान्यस्याभावोसादौ क्षायिकस्य युक्ती, येनैवं विलक्षणता स्यात्, इति चेत्, वर्हि पूर्वोत्तरसमययोस्तदुपाधिभूतयोनानोत्पादौ पाथं तस्य स्यातां यतोऽसौ स्वयं स्थितोऽपि सर्वतदपेक्षया विलक्षण: स्यादिति कौटस्थ्यमायातम् । तथा च सिद्धांतविरोधः परमतप्रवेशात् ।
यहां शंका है कि उस क्षायिक सम्यक्त्वका दूसरे अन्य हेतुओंसे रहितपना तो अन्य हेतुओंका प्रागभाव रूप है अर्थात् अकेले क्षायिक सम्यग्दर्शनके समय ज्ञान नहीं है । यानी ज्ञानका प्रागभाव है। थोडी देर पीछे ज्ञान होनेवाला है। और उन हेन्तरोसे सहितपना उन दूसरे हेतुओंका उत्पाद हो जाना ही है। अर्थात्-शायिक सम्यग्दर्शन तो था ही, दूसरा विशिष्ट ज्ञान और भी अधिक उत्पन्न हो गया। एतावता दूसरे अन्य हेतुओंके प्रागभाव और उत्पति होना पहिले विद्यमान होरहे
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