Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वाथचिन्तामणिः
इस क्षायिक भावके कहे जाने यह तो युक्त नहीं है जिससे कि इस प्रकार ऊपर कहा हुआ तीन लक्षणपना क्षायिक सम्यक्त्वमे सिद्ध हो जाये। भावार्थ – चंद्रोदयका प्रागभाव और चंद्रमाका उदय ये दोनों सूर्योदय के उत्पाद, व्यय करनेमें उपयोगी नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार दूसरे गुणोंके प्रागभाव और उत्पाद अन्य गुणोंकी त्रिलक्षणताको पुष्ट नहीं कर सकते हैं। मला विचारो तो सही कि तटस्थ या उदासीन पदार्थों के उत्पत्ति व्ययसे प्रकृतपदार्थ में कैसे परिणाम होंगे। ग्रंथकार समझाते हैं कि यदि ऐसी शंका करोगे तब तो हम कहते है कि शंकाकार के द्वारा पहिले माने गये पूर्वसमय में रहनारूप हो चुके विशेषणका नाश और उत्तर समयमें रहनारूप होरहे विशेषणका उत्पाद मे दो धर्म मला उस सम्यग्दर्शन के कैसे हो सकेंगे ! बताओ । जिससे कि यह क्षायिकमाव शंकाकारके कथनानुसार अपने आप स्वयं स्थित होता हुआ भी सम्पूर्ण इन पूर्व, अपर, उत्तर, समयों में वर्तनारूप उपाधियों की अपेक्षासे तीन लक्षणवाला बन जाता । इस प्रकार तो क्षायिक मात्रको कूटस्थ नित्यपना प्राप्त होता है । अर्थात् पूर्व समयमें रहनेपनका अभाव और रहनेपन का उत्पाद ये धर्म भी तो दूसरे पदार्थों की अपेक्षासे ही सिद्ध हो सके हैं। ऐसी
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कार हमारे मतको नहीं समझा यही कहना पडेगा । फिर व्यर्थ ही जैन सिद्धांत को समझ लेने का कोरा अभिमान क्यों किया जारहा है ? | हम जैन मानते हैं कि पूर्व समय चला गया और उत्तर समय आगया । वह भी चला जावेगा और तीसरा समय आजावेगा। यह धारा अनादि अनंतकाल तक बहेगी | लोकने प्रसिद्ध है कि गया हुआ समय फिर हाथ नहीं आता " । यहांपर विचार करना है कि व्यवहार काळ तो जीव द्रव्यसे निराळा पदार्थ है। उसके चले जानेसे हमको पश्चाताप क्यों करना चाहिये ? किंतु इसमें रहस्य है । वह यह है कि उस व्यवहारकालको निमित्त पाकर हमारे जीव पुलोंके भिन्न भिन्न परिणमन होरहे हैं। वे बीते हुए परिणमन फिर हाथ नहीं आते इसका पश्चात्ताप है । बाल्यअवस्थामै कितनी स्वच्छन्दता, कोमल अवयव कुटुम्बीजनोंका प्रेम, हृदयकी कलुषताका अभाव, बुद्धिकी स्वच्छता, सत्य बोलना ज्ञानोपार्जनकी शक्ति थी। अब वे युवा अवस्था नहीं हैं। युवा अवस्थामें आकांक्षायें, कामवासनाएं बढ जाती हैं अर्थका उपार्जन, यशोवृद्धि, संतान वृद्धिकी उत्सुकताएं बनी रहती हैं। इसके बाद वृद्धावस्था आनेपर उन ऐन्द्रियक सुखोंका अवसर भी निकल चुका 1 अनेक व्यर्थकी चिंता सताती हैं। अपने अर्जित धनपर व्यय करने निर्दय ऐसे पुत्रोंका या अन्य घरोंसे आयी हुयी गृहदेवियोंका अधिकार हो जाता है। अतिवृद्ध होनेपर तो भारी दुर्दशा हो जाती है। अतः यह जीव बीते हुए पूर्व समयके लिये नहीं, किंतु बीसी हुयी अपनी अच्छी अवस्थाओं के लिये या उस समय हम कितने समुचित कार्य कर सकते थे, इसके लिये रोता है । हमसे सर्वथा निराले समयके निकल जानेसे मला इमको क्या पछतावा हो सकता था। जिस नदी के पानीसे हमको रंचमात्र भी लाभ नहीं है उसका पानी सबका सब वह जाओ इसकी इमको कोई चिंता नहीं है। यदि पूर्वसमयके परिवर्तनोंसे हमारी शारीरिक और आत्मीय
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उत्तर समयमै दशा में आप