Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
है । हां ! उन केवलज्ञानावरण आदि कम से रहित जो सम्यग्दर्शन है, वह तो केवलज्ञानको उत्पन्न करानेवाला कारण है ही । बारहवें गुणस्थानके अंतसमयवतीं सम्यग्दर्शनको हमने उस प्रकार कारणरूप से इष्ट किया है। सर्वे ही कारण बिचारे प्रतिबंधकोंसे रहित होकर ही अपने कार्योंको उत्पन्न करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। प्रतिबंधकोंके सद्भाव ण्यन्त प्रयोजक हेतु भी क्या करें ? कुछ नहीं ।
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सद्बोधपूर्वकत्वेऽपि चारित्रस्य समुद्भवः ।
प्रागेव केवलाम्न्न स्यादित्येतच्च न युक्तिमत् ॥ ८२ ॥ समुच्छिन्नक्रियस्थातो ध्यानस्याविनिवर्तिनः । साक्षात्संसारविच्छेद समर्थस्य प्रसूतितः ॥ ८६ ॥ यथैवापूर्ण चारित्रमपूर्णज्ञानहेतुकम् ।
तथा तत्किन सम्पूर्ण पूर्णज्ञाननिबन्धनम् ॥ ८४ ॥
उक्त प्रकार से रत्नत्रयका कार्यकारणभाव हो जानेपर भी यहां किसीका पुनः प्रश्न है कि आप जैन पूर्व में समीचीन पूर्ण ज्ञान हो जानेपर पश्चात् यदि पूर्ण चारित्रकी बढिया उत्पत्ति मानेंगे तब तो केवलज्ञान से प्रथम ही क्षायिक चारित्र नहीं उत्पन्न होना चाहिये था। क्योंकि कारणके पश्चात् कालमें कार्य हुआ करते हैं । भाचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार कहना भी युक्तियोंसे सहित नहीं है। क्योंकि यद्यपि केवलज्ञान प्रथम क्षायिकचारित्र हो चुका है। फिर भी उस चारित्रमें अव्यवहित उतर: कालमें संसार के ध्वंस करने के सामर्थ्य की उत्पत्ति तो इस केवलज्ञानसे उत्पन्न होती है, जो कि चारित्र श्वासोच्छ्रास क्रिया के रुक जानेपर और योगपरिस्पन्दरूप क्रिया के नष्ट हो जानेपर तथा अ, हैं, उ, ऋ, ऌ इन ह्रस्व पांच अक्षरके उच्चारण बराबर समयोनकालके बीत जानेपर चौदहवें गुणस्थानके अंत में इस व्युपरत क्रियानिवृत्ति नामक ध्यानसे युक्त है । भावार्थ - क्षायिक चारित्र गुणकी पूर्णता संसारको ध्वंस करनेवाले चतुर्थ शक्लध्यानसे होती है और यह चौथा शुक्ल ध्यान सहकारी कारणोंसे सहित केवलज्ञान द्वारा उत्पन्न किया जाता है। अतः जैसे ही अपरिपूर्ण ज्ञानरूप हेतुसे अपरिपूर्ण चारित्र होता है, वैसे ही पूर्ण ज्ञानको कारण मानकर वह पूर्ण चारित्र क्यों न होगा ! अर्थात् --- ग्यारहवें गुणस्थानतक अपूर्ण चारित्र है। उसका कारण ज्ञानका पूर्ण न होना है । वैसा ही चौदहवेंके अंत के पूर्ण चारित्रका कारण केवलज्ञान है। मंध्यके अनेक सहकारी कारण भी पपेक्षणीय हैं । बारहवें गुणस्थानके चारित्रको क्षायिक गुण मानते हैं । किंतु हम उसको परिपूर्ण चारित्र नहीं मानते हैं। क्योंकि उसमें आनुषंगिक स्वभावसे अधिकता होनेवाली है। किंतु तेरहवें के
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