Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
परिणति है। वेद भी विद्यमान है। ये सब चारित्रगुणके चिन्ह या संकररूप विभावपर्याय है। एक गुणकी एक समयमें एक ही पर्याय होती है। यहाँ जटाजूट बंधगया है। चारित्रका विभाव और स्वभाव दोनों ही अनेक धर्मासे सहित हैं। अतः चारित्रमोहनीय कर्मको उस शक्तिका प्रतिबन्धक मानना चाहिये।
नापि नामाद्यपातिकर्मभिस्तत्क्षयानन्तरं तदुत्पादप्रसक्तः तथा चान्योन्याश्रयणात् सिद्धे नामाद्यपातिक्षये तन्निर्जरणशक्त्याविर्भावात्तत्सिदी नामाद्यपातिक्षयात् इति, चारित्रमोहस्तस्याः प्रतिबंधक सिद्धः।
यदि अातिया कोंके नाश करनेवाली शक्तिका प्रतिबंध होना नाम आदि अधातिया कौके द्वारा माना जाने सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि ऐसा होनेपर तो उन नाम, गोत्र, आयु और वेदनीयके नाश हो जानेके पश्चात् उस शक्तिकी उत्पति होनी चाहिये । किंतु नाम आदिकके नाश होने के पश्रम ही उस शक्तिका उत्पाद हो जाता है। तमी तो उस शक्तिके प्रगट हो जानेपर पीछेसे नाम आदिका नाश हो सकेगा। अतः वैसा माननेपर इस ढंगसे परस्पराश्रय दोष होगा कि नाम आदि अघातिया कर्मों के क्षयके सिद्ध होनेपर उनको निर्जर करनेवाली शक्तिका प्रादुर्भाव होवे और उस निर्जराशक्तिका प्रादुर्भाव सिद्ध हो चुके तब कहीं नाम आदि चार अधातिया कोका क्षय होना बने । इस प्रकार परस्पराश्रय दोषके हो जानेसे किसी भी कार्यकी सिद्धि न हुयी । इस कारण उस शक्तिका प्रतिबंध करनेवाला चारित्रमोहनीयकर्भ ही सिद्ध होता है।
क्षीणकपायप्रथमसमये तदाविर्भावप्रसक्तिरपि न वाच्या, कालविशेषस्य सहकारिपोऽपेक्षणीयस्य तदा विरहात्। प्रधानं हि कारण मोहक्षयो नामादिनिर्जरणशक्तेन योगकेवलिगुणस्थानोपान्त्यान्त्यसमयं सहकारिणमंतरेण तामुपजनयितुमल सत्यपि केवले सतः प्राक्तदनुत्पत्तरिति । न सा मोहक्षयनिमित्ताऽपि क्षीणकपायप्रथमक्षणे प्रादुर्भवति, नापि तदावरष कर्म नवम प्रसज्यते ।
- जब कि अघातियोंकी निर्जरा करनेवाली शक्तिका प्रतिबंधक जैन लोग चारिन मोहनीयको मानेंगे तो बारहवें गुणस्थानके पहिले समयमें वह शक्ति प्रगट हो जानी चाहिये, इस प्रकारका प्रसंग हो जाना भी नहीं कहना चाहिये । क्योंकि सम्पूर्ण कार्योंके प्रति अवश्य अपेक्षा करने योग्य कालविशेष सहकारी कारण माना गया है | वनस्पति, धान्य, फल, फूल आदि पदार्थ भिन्न भिन्न समयोम ही उत्पन्न होते हैं । वनों में सैकड़ों बीज पडे रहते हैं। मिट्टी, पानी घाम (धूप ) ये सहकारी कारण भी विद्यमान हैं । किंतु समय ( व्यवहार काल ) पाकर ही चे फलते फूलते हैं । सर्वदा नहीं। वैसे ही मोहनीयके क्षय हो जानेपर भी उस शक्तिको सहकारी कारणविशेष कालकी अपेक्षा है।