Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
अभ्यासपूर्वक कुमेषी, कुलिंगी, जिन संयमोंको पालते हैं वे मिध्यासंयम हैं । जैसे कि चारों दिशाओ आग जलाकर ऊपरसे सूर्य किरणों द्वारा संतप्त होकर पंच अभि तप करना, वृक्षपर उलटे लटक जाना, जीवित ही गंगा में प्रवाहित हो जाना, नख, केश बढाना आदि तो मिथ्याचारित्र है । और समीचीन सर्वज्ञोक्त आगमका अभ्यास कर उसके अनुसार अट्ठाईस मूलगुणों का धारण करना, अन्तरङ्ग तपको बढाना आदि जैन ऋषियोंके समीचीन संयम है । तथा मिध्यात्व और अनंतानुबंध का उदय न होनेपर भी प्रवृत्ति करनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टिके हिंसा करने, झूठ बोलने, आर्दिकी परिणति असंयमभाव है। यहां प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, गर्दा, निन्दा, अमूढदृष्टिता, वात्सल्य आदि गुण विद्यमान हैं । यह असंयम पहिले दोनों सम्यक् और मिध्यासंयमसे भिन्न है ।
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न चासंयमाद्भेदेन मिध्यासंयमस्योपदेशा भाषाभेद एवेति युक्तं, तस्य वातपःशलेनोपदिष्टत्वात् ततः कथञ्चिद्भेदसिद्धेः ।
feater है कि जीवके पांच भावों में औदयिक असंयत भावसे भिन्न होकर मिश्रासंयमका कहीं उपदेश नहीं है । इस कारण मिथ्याचारित्र और असंयमका अभेद ही मानना चाहिये । फिर चौथे में या तो मिथ्याचारित्रको मानो या संयमीपनको स्वीकार करो। अंधकार कहते हैं कि यह किसीका कइना युक्त नहीं है । क्योंकि असंयमसे भिन्न माने गये उस मिथ्याचारित्रका दूसरे स्थलोंपर छठे अध्याय में बालतपः शब्दसे उपदेश किया है । उस कारण मिथ्याचारित्र और असंयम किसी अपेक्षा से भेद ही सिद्ध है । दुःख, सुख, अदुःख, नोदुःख, अथवा संसार, असंसार, नोसंसार, त्रितयश्यपेत, ये अवस्थायें न्यारी न्यारी हैं ।
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न हि चारित्रमोहोदय मात्राद्भवच्चारित्रं दर्शनचारित्र मोहोदयजनितादचारित्रादभिन्नमेवेति साधयितुं शक्यं सर्वत्र कारणभेदस्य फलाभेदकत्वप्रसक्तेः । मिथ्यादृष्ट्ासेयमस्य नियमेन मिथ्याज्ञानपूर्वकत्वप्रसिद्धेः सम्यग्दृष्टेरसंयमस्य मिथ्यादर्शनज्ञानपूर्वकविरोधात, विरुद्धकारणपूर्वकतयापि भेदाभावे सिद्धांतविरोधात् ।
चौथे गुणस्थान में दर्शनमोहनीयके संबन्ध रहित होकर केवल चारित्रमोहनीयके उदयसे होता हुआ स्वरूपाचरण चारित्र तो पहिले गुणस्थानमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके उदयसे पैदा हुए मिथ्याचारित्र अभिन्न ही है, इस बातको सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं होना चाहिये । यानी कैसे भी उक्त बातको सिद्ध नहीं कर सकते है । अन्यथा सभी स्थानोंपर कारणोंका भिन्न होना कार्य भेदको सिद्ध न कर सकेगा। जिस चौथे गुणस्थानके अचारित्र ( स्वरूपाचरण ) भाव केवल चारित्रमोहनीयका उदय है और पहिले गुणस्थान के अचारित्र ( मिथ्याचारित्र ) में दर्शन मोहनीयसहित चारित्रमोहनीयका उदय है । ये दोनों भला एक कैसे हो सकते हैं ! | frevieटीका असंयम नियमसे मिथ्याज्ञानपूर्वक प्रसिद्ध हो रहा है और सम्यग्दृष्टिके असंयमको