Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्वाचिन्तामणिः
दुःख हैं फल जिसके, ऐसा हीनस्थान नारकशरीर आदिका ग्रहण करनारूप संसार होना देखा जाता है । यहां मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान के क्षय होनेपर भी संसारका क्षीयमाणपना ( साध्य ) नहीं रहा है । अतः व्यभिचार होजानेसे दुःखफलस्व हेतुकी मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानके अपक्षय होनेपर क्षीयमाणस्वरूप साध्य के साथ व्याप्ति ( अविनाभाव होना) कैसे भी सिद्ध नहीं हैं। ग्रंथकार करते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उस सम्यग्दृष्टि के भी भविष्यमें होमेवाले अनन्तानम्त निकृष्ट खानाम जन्म मरणोंको धारण करना रूप संसारका प्रक्षय होना सिद्ध है। सम्यादृष्टि जीव भले ही शखाधात या आत्मघातसे कतिपय निकृष्ट शरीरोंको धारण करलेवे, फिर भी विषभक्षण, आत्मघात, आदिका क्षय होकर संसारका हास होते हुए संख्यात भवों में उसकी मोक्ष होना अनिवार्य है । श्रेणिक तो तीसरे भवसे ही मोक्ष प्राप्त करेंगे। अतः आपका दिया हुआ म्यभिचारका स्थल हमारे प्रतिज्ञावाक्य के अंतरंगमें प्रविष्ट होरहा है । अर्थात् वह भी साध्यकोहिमें पहा है । हेतुके रहजाने से किसी अपराधी सम्यग्दृष्टि के संसारमें भी क्षीयमाणपना रहजाता है । अतः उससे व्यभिचारका होना असम्भव है । पक्ष और पक्षसममें व्यभिचार दोष उठाना अन्याय है। अभिप्रायको नहीं समझपानेका सूचक है।
निदर्शनं परप्रसिध्या विषमविषभक्षणातिभोजनादिकमुक्तं, तत्र परस्य साध्यव्याससाधने विवादाभावात् । न हि विषमविषमक्षणेऽतिभोजनादौ वा दुाखफलत्वमसिद्ध, नापि नाचरणीयमेतत्सुखार्थिनेति सत्यज्ञानोत्पची तत्संसर्गलक्षणसंसारस्यापक्षयोपि सिद्धस्वावता च तस्य दृष्टान्तताप्रसिद्धरविवाद एव ।
हमने अपने पूर्व अनुमानमें जो तीक्ष्ण विषका खाना या भूखसे अति अधिक खाना आदि दृष्टांत दिये हैं, वे दूसरे प्रतिवादीकै घरकी प्रसिद्धिके अनुसार कहे हैं। प्रतिवादीके यहां शीघ्र दुःखरूपी फलको देनेवाले विषमक्षणमे मिथ्याभदान आदिके नष्ट होनेपर क्षीययाणपना है तथा परम्परासे दुःख देनेवाले अधिक भोजनमें भी झीयमाणपना देखा जाता है अर्थात् दुःखरूप फलको देनेवाले विषमक्षण आदि कर्म तत्त्वज्ञानीके नष्ट हो जाते हैं। वे इन क्रियाओंको नहीं करते हैं। वैसे ही संसार भी तत्त्वज्ञानीका न्यून हो जाता है। नैयायिक आदि भी अधिक भोजन या पावले कुत्ते के काटने आदिमें परम्परासे होनेवाले दुःखफलब हेतुफी क्षीयमाणत्व साध्य के साथ व्याप्ति सिद्ध करनेमे विवाद नहीं करते हैं । प्रतिकूल विषके मक्षणमै अथवा अधिक भोजन, शीतबाधा मादिसे पीडित होने दुःखफलपना असिद्ध नहीं है और सुख के अभिलाषी ज्ञानी जीवको ये विषमक्षण भादि आचरण नहीं करना चाहिए। यह साध्य भी असिद्ध नहीं है । यानी दृष्टांत रह आता है । समीचीन हितकारी ज्ञानके उत्पन्न हो जानेपर कोई जीव मयंकर विषको नहीं खाता है। और न अधिक भोजन करता है । शीत उष्णकी बाधाओंसे भी बचा रहता है। अतः तत्त्वज्ञानीके नैसे इस उपद्रयों का क्षय हो जाता है, वैसे ही मिथ्याज्ञानका नाश होकर सत्यज्ञानके उत्पन्न