Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उस समय बारहवेक आदिमें वह सहकारी कारण माना गया विशेषकाल नहीं है । अतः उस समय वह शक्ति प्रगट नहीं हो पाती है । नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कोंकी समूल निर्जरा करने वाली शक्तिका प्रधान कारण तो मोहनीय कर्मका क्षय ही है। किंतु यह मोहक्षय अयोगकेवली नामक चौदहवे गुणस्थानके अंतिमके निकट होरहे उपान्त्य समय और अंतिम समयरूप सहकारी कारणके विना उस शक्तिको पूर्णरीत्या प्रगट करने के लिये समर्थ नहीं है | जिस शक्तिके द्वारा चौदहवेके उपांत्य समय बहत्तर प्रकृतियोंका और अन्त्य समयमे तेरह प्रकृतियोंका क्षय हो जानेवाला है । तेरहवेकी आदिमें केवलज्ञान हो जानेपर भी परिपाक समयके विना चौदहवेके उन अन्त्य, उपान्त्य समयोंसे पहिले यह शक्ति उत्पन्न नहीं होपाती है। इस कारण मोदक्षयके निमित्तसे हो जानेवाली भी वह शक्ति शीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानके पहिले समयमें प्रगट नही होती है। और उस शक्तिका प्रतिबंध करनेवाला चारित्र मोहनीय कर्म जब सिद्ध हो चुका तो उस शक्तिका आवरक बनने के लिये आठ कोसे अतिरिक्त नववे कर्म माननेको भी प्रसंग नहीं आता है।
इति स्थितं कालादिसहकारिविशेषापेक्ष क्षायिकं चारित्रं, क्षायिकत्वेन सम्पूर्णमपि मुक्त्युत्पादने साक्षादसमथे कवलाप्राकालभारि तदकारकम् । केवलोत्तरकालभावि तु साक्षान्मोक्षकारणं सम्पूणे केवलकारणकमन्यथा तद्घटनात् ।
___ इस प्रकार अबतक ऊहापोह पूर्वक सिद्ध हुआ कि मोहनीय कर्मके क्षयसे जन्य होनेकी अपेक्षासे यद्यपि क्षायिकचारित्र बारह की, आदिमें सम्पूर्ण भी हो चुका है, किन्तु अव्यवहित उचर कालमें मोक्षको प्राप्त कराने के लिये वह समर्थ नहीं है। क्योंकि सहकारी कारण कहे गये. कालविशेष आदिकी उसको अपेक्षा है। केवलज्ञानसे पहिले कालमें होनेवाला चारित्र तो कारकहेतु ही नहीं है । क्योंकि मोक्षके कारकतु तीनों रन माने गये हैं। वहां दो ही हैं। हां ! केवलज्ञानके उत्तर कालमें होनेवाला तो वह चारित्र जब अपने अंशोमें अपने आनुषक्तिक स्वभावोंसे परिपूर्ण हो जावेगा । तो चौदहवेंके अन्तर्भ साक्षात् ( अव्यवहित उत्तरकालमै ) मोक्षका कारण हो जाता है । अतः पूर्णचारित्रका कारण केवलज्ञान है । केवलज्ञान हुए विना दूसरे प्रकारसे चौदहवेके अन्त समयमें होनेवाली चारित्रकी वह पूर्णता नहीं बन सकेगी । ऐसा होनेपर केवलज्ञानके विधमान होते हुए भी पूर्ण चारित्र विकल्पनीय समझा जाता है। . कालापेक्षितया वृत्तमसमर्थं यदीष्यते ।
व्द्यादिसिद्धक्षणोत्पादे तदन्त्यं तागित्यसत् ॥ ९१ ॥ प्राच्यसिद्धक्षणोत्पादापेक्षया मोक्षवर्मनि । विचारप्रस्तुतेरेवं कार्यकारणतास्थितेः ॥ ९२ ॥